16 February 2013

धार्मिक विचार

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* मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं, अपितु वह उनका निर्माता, नियंत्रणकर्ता और स्वामी होता है। 

* आदमी कभी भी काम की अधिकता से नहीं, बल्कि उसे भार समझ कर अनियमित रूप से करने पर थकता है।

* ईश्वर भी केवल उन्हीं की सहायता करते है, जो अपनी सहायता आप करने को तत्पर रहते है। 

* अपने आपको मनुष्य बनाने का प्रयत्न करो, यदि आप इसमें सफल हो गए, तो आपको हर काम में सफलता मिलेगी। 

* किसी का सुधार उपहास से नहीं, उसे नए सिरे से सोचने और बदलने का अवसर देने से ही होता है। 

* जो जैसा सोचता और करता है, वह वैसा ही बन जाता है। इसलिए हमेशा अच्छा सोचो, निश्चित ही आप अच्छे बनोगे। 

कोटेश्वर महादेव मंदिर

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धार्मिक ग्रंथों के अनुसार यहां कश्यप ऋषि के पुत्र करजेश्वर ने शिव आराधना कर उन्हें प्रसन्न किया और शिवलिंग की स्थापना की थी। 

ब्रह्मलीन लक्ष्मीनारायणजी कश्यप इस आश्रम के संस्थापक गुरु रहे हैं। 

कश्यप आश्रम से चार कि.मी. उत्तर में च्यवन ऋषि का आश्रम है। जड़ी-बूटियों के वृक्षों से सुशोभित और जल की अनवरत बहती औषधीय जलधारा इस आश्रम के मुख्य आकर्षण हैं। कश्यप आश्रम से एक कि.मी. पश्चिम में नर्मदा के उत्तर तट पर कोटेश्वर महादेव मंदिर है। एकांत स्थान में स्थित यह अतिप्राचीन होकर अहिल्यादेवी द्वारा स्थापित बताया जाता है। 

कोटेश्वर के समीप ही पश्चिम की ओर नब्बे के दशक में विकसित दुलारी बापू का स्थान है, जो आधुनिक रूप से निर्मित संगमरमर का है। यहां दुलारी बापू अपने भक्तों को आशीष देने हेतु, नर्मदा आराधना में तल्लीन रहते हैं। 

च्यवन आश्रम और कोटेश्वर के मध्य हनुमान माल पर स्थापित हनुमानजी की प्रतिमा, गाय की प्रतिमा इतनी ऊंची पहाड़ी पर स्थित है कि चढ़ने में सांस फूलने लगती है। यह प्रतिमाएं और पत्थरों की दीवार प्राचीन बस्ती होने का प्रमाण देती हैं। 

कोटेश्वर से लगभग पांच कि.मी. उत्तर-पश्चिम में प्रसिद्ध जयंती माता का मंदिर मां आद्यशक्ति की आराधना का केंद्र है। जहां दोनों नवरात्रियों में मालवा व निमाड़ के भक्तजन दर्शन करने आते हैं। 

मंदिर के ऊपर की गुफा से माता जयंती की प्रतिमा नीचे लाकर चोरल नदी के किनारे स्थापित की गई। मंदिर पार्श्वनाथ में प्राचीन जैतगढ़ के किले के अवशेष आज भी मौजूद हैं। 

महर्षि वाल्मीकि

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महर्षि वाल्मीकि डाकू नहीं बल्कि ऋषियों के ऋषि, योगियों के योगी तथा संगीतज्ञों के संगीतज्ञ थे। उनके नाम का अन्य कोई व्यक्ति डाकू या अपराधी हो सकता है। वाल्मीकि वेदों के ज्ञाता थे। उन्होंने चारों वेदों की शिक्षा रामायण में निहित कर दी थी। 

महर्षि वाल्मीकि ने संप्रदाय और जाति से दूर सभ्य समाज की परिकल्पना दी है। योग और यज्ञ एक ही है तथा इनसे विनाश को टालने के साथ शरीर को विकार मुक्त किया जा सकता है। पुरुषार्थ से देह को ऊपर उठाया जा सकता है। जिस व्यक्ति में पुरुषार्थ होगा, वह क्रियाशील, अनुशासित व परोपकार करने वाला व्यक्ति होगा। 

विश्व का निर्माता एक ही ईश्वर है। उसी एक ईश्वर को अनेक नामों से जाना व पुकारा जाता है। ऐसे ही ऋषि वाल्मीकि ने सभ्य समाज की परिकल्पना हमारे रूबरू साकार की है। 

महाकाव्य रामायण के रचयिता वाल्मीकि अपराधी नहीं बल्कि संतत्व को प्राप्त रचनाकार हैं। उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के जीवन मूल्यों को सच्चाई के साथ व्यक्त किया है। 

ऐसे महान आदि कवि महर्षि वाल्मीकि ने संस्कृत में रामायण की रचना करके राम के जीवन, आदर्शों, सिद्घांतों व नीतियों का वर्णन किया है। 

युवा पीढ़ी रामायण जैसे विश्व प्रसिद्घ महाकाव्य पढ़कर समाज की दिशा बदल सकती है।

सद्विचार

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यदि अपराध व हिंसा को कम करना है तो समाज को भी संयम की जीवनशैली अपनाना होगी। यदि समाज के मुखिया ही नैतिक जीवन जिएँ तो हमारा चिंतन बदल सकता है तथा अपराध व हिंसा की समस्या भी कम हो जाएगी।

धार्मिकता के लिए आत्मा का बोध होना जरूरी है। जिस व्यक्ति को आत्मा, कर्म और पुनर्जन्म का ज्ञान न हो व धार्मिक नहीं हो सकता

मानव जाति में हिंसा का मुख्य कारण है हीनता व अहं की वृत्ति। मनुष्य यदि इन दो वृत्तियों से मुक्ति पा ले तो समाज से हिंसा, चोरी, अपराध आदि स्वाभाविक रूप से कम हो जाएँगे।

लोग समस्या का रोना रोते हैं। समस्या हर युग में रही है। अगर समस्या न हो तो आदमी चौबीस घंटे कैसे बिताएगा? समस्या है तभी आदमी चिंतन करता है, समाधान खोजता है, सुलझाने के प्रयत्न करता है और दिन-रात अच्छे से बिता देता है। यदि समस्या न हो तो व्यक्ति निकम्मा बन जाए

लोग केवल संग्रह करना जानते हैं। संयम की बात नहीं जानते। आज केवल आर्थिक व भौतिक विकास की बात पर बल दिया जा रहा है, नियंत्रण व संयम की बात पर नहीं। यही समस्या का सबसे बड़ा कारण है। आजकल प्रयोजन व उद्देश्य की पूर्ति के बिना कोई कार्य नहीं होता ।


शब्द से अधिक मौन की महत्ता है। जो शब्द ने कहा वह कह गया पर जो मौन ने कहा वह रह गया। साहित्य में कल्पना, सरसता और चुभन का महत्व है किंतु आज के साहित्य में चुभन कम हो गई है। विद्वान, पंडित, वनिता और लता को हमेशा सहारे की जरूरत होती है किंतु इन दिनों साहित्यकारों को समाज का सहयोग कम मिल रहा है। मेरा मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, अज्ञेय, बच्चन जैसे साहित्यकारों से नेकट्य रहा है। मेरी शुरुआत भी साहित्य से हुई विशेषकर कविता से। साहित्यकार, योगी और वैज्ञानिक को एकाग्रता की आवश्यकता होती है। 

जब तक किसी राष्ट्र का नैतिक स्तर उन्नात नहीं होता, तब तक जो भी प्रयत्न हो रहा है, वह फलदायी नहीं बनेगा। जरूरी है समाज में नैतिक स्तर ऊँचा हो।

केवल दो शब्दों में संपूर्ण दुनिया की समस्या और समाधान छिपे हुए हैं, एक है पदार्थ जगत और दूसरा है चेतना जगत। पदार्थ भोग का और चेतना त्याग का जगत है। हमारे सामने केवल पदार्थ जगत है और इसकी प्रकृति है समस्या पैदा करना। इस जगत में प्रारंभ में अच्छा लगता है और बाद में यह नीरस लगने लगता है। दूसरा है चेतना जगत जो प्रारंभ में कठिन लगता है लेकिन जैसे-जैसे व्यक्ति उस दिशा में जाता है उसे असीम आनंद प्राप्त होने लगता है।

जीवन की सार्थकता

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संत एकनाथजी के पास एक व्यक्ति आया और बोला - नाथ! आपका जीवन कितना मधुर है। हमें तो शांति एक क्षण भी प्राप्त नहीं होती। कृपया मार्गदर्शन करें।

एकनाथजी ने कहा - तू तो अब आठ ही दिनों का मेहमान है, अतः पहले की ही भांति अपना जीवन व्यतीत कर। 

यह सुनते ही वह व्यक्ति उदास हो गया। घर गया और पत्नी से बोला - मैंने तुम्हें कई बार नाहक ही कष्ट दिया है। मुझे क्षमा करो। फिर बच्चों से बोला - बच्चों, मैंने तुम्हें कई बार पीटा है, मुझे उसके लिए माफ करो। जिन लोगों से उसने दुर्व्यवहार किया था, सबसे माफी मांगी। 

इस तरह आठ दिन व्यतीत हो गए और नौवें दिन वह एकनाथजी के पास पहुंचा और बोला - नाथ, मेरी अंतिम घड़ी के लिए कितना समय शेष है?


एकनाथजी बोले - तेरी अंतिम घड़ी तो परमेश्वर ही बता सकता है, किंतु तेरे यह आठ दिन कैसे व्यतीत हुए? भोग-विलास और आनंद तो किया ही होगा?

वह व्यक्ति बोला - क्या बताऊं नाथ, मुझे इन आठ दिनों में मृत्यु के अलावा और कोई चीज दिखाई नहीं दे रही थी। इसीलिए मुझे अपने द्वारा किए गए सारे दुष्कर्म स्मरण हो आए और उसके पश्चाताप में ही यह अवधि बीत गई।

एकनाथजी बोले - मित्र, जिस बात को ध्यान में रखकर तूने यह आठ दिन बिताए हैं, हम साधु लोग इसी को सामने रखकर सारे काम किया करते हैं। यह देह क्षणभंगुर है, इसे मिट्टी में मिलना ही है। इसका गुलाम होने की अपेक्षा परमेश्वर का गुलाम बनो। सबके साथ समान भाव रखने में ही जीवन की सार्थकता है।

धर्म की महानता

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धर्
म र संस्कृति ी महानता दर्शाने वाले राजा शिबि ा दर्शअद्वितीय र अतुलनीय है। क पौराणिकथा े अनुसार उशीनगर देश के राजा शिबि एक दिन अपनी राजसभा में बैठे थे। 

उसी समय एक कबूतर उड़ता हुआ आया और राजा की गोद में गिर कर उनके कपड़ों में छिपने लगा। कबूतर बहुत डरा जान पड़ता था। 

राजा ने उसके ऊपर प्रेम से हाथ फेरा और उसे पुचकारा। कबूतर से थोड़े पीछे ही एक बाज उड़ता आया और वह राजा के सामने बैठ गया। 

बाज बोला- मैं बहुत भूखा हूं। आप मेरा भोजन छीन कर मेरे प्राण क्यों लेते हैं? 

pigeon

राजा शिबि बोले- तुम्हारा काम तो किसी भी मांस से चल सकता है। तुम्हारे लिए यह कबूतर ही मारा जाए, इसकी क्या आवश्यकता है। तुम्हें कितना मांस चाहिए? 

बाज कहने लगा- महाराज! कबूतर मरे या दूसरा कोई प्राणी मरे, मांस तो किसी को मारने से ही मिलेगा। 

राजा ने विचार किया और बोले- मैं दूसरे किसी प्राणी को नहीं मारूंगा। अपना मांस ही मैं तुम्हें दूंगा। एक पलड़े में कबूतर को बैठाया गया और दूसरे पलड़े में महाराज अपने शरीर के एक-एक अंग रखते गए। आखिर में राजा खुद पलड़े में बैठ गए। 

बाज से बोले- तुम मेरी इस देह को खाकर अपनी भूख मिटा लो। 

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महाराज जिस पलड़े पर थे, वह पलड़ा इस बार भारी होकर भूमि पर टिक गया था और कबूतर का पलड़ा ऊपर उठ गया था। लेकिन उसी समय सबने देखा कि बाज तो साक्षात देवराज इन्द्र के रूप में प्रकट हो गए है और कबूतर बने अग्नि देवता भी अपने मूल रूप में खड़े हैं। 

अग्नि देवता ने कहा- महाराज! आप इतने बड़े धर्मात्मा हैं कि आपकी बराबरी मैं तो क्या, विश्व में कोई भी नहीं कर सकता। 

इन्द्र ने महाराज का शरीर पहले के समान ठीक कर दिया और बोले- आपके धर्म की परीक्षा लेने के लिए हम लोगों ने यह बाज और कबूतर का रूप बनाया था। आपका यश सदा अमर रहेगा।

दोनों पक्षी बने देवता महाराज की प्रशंसा करके और उन्हें आशीर्वाद देकर अंतर्र्ध्यान हो गए। 

ऐसे कई सच्चे उदाहरण हमारे चारों ओर बिखरे पड़े हैं, जो हमारी संस्कृति और धर्म की महानता व व्यापकता दर्शाते हैं। हमारा दर्शन अद्वितीय और अतुलनीय है। स्वयं कष्ट उठा कर भी शरणागत और प्राणी मात्र की भलाई चाहने वाली संस्कृति और कहां मिलेगी। वहीं ऐसा राजा भी कहां मिलेगा, जो नाइंसाफी नहीं हो जाए, इसलिए स्वयं को ही भोजन हेतु समर्पित कर दें। 

प्रार्थना की शक्ति का महत्व...

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मनुष्य का जीवन उसकी शारीरिक एवं प्राणिक सत्ता में नहीं, अपितु उसकी मानसिक एवं आध्यात्मिक सत्ता में भी आकांक्षाओं तथा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और कामनाओं का है। 

जब उसे ज्ञान होता है कि एक महत्तर शक्ति संसार को संचालित कर रही है, तब वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, अपनी विषम यात्रा में सहायता के लिए, अपने संघर्ष में रक्षा के लिए आय प्राप्त करने के लिए प्रार्थना द्वारा उसकी शरण लेता है। 

प्रार्थना द्वारा भगवान की ओर साधारण धार्मिक पहुंच, अपने को ईश्वर की ओर मोड़ देने के लिए यह हमारी प्रार्थनारूपी विधि हमारी धार्मिक सत्ता का मौलिक प्रयत्न है, और एक सार्वभौम सत्य पर स्थित है- भले ही इसमें कितनी भी अपूर्णताएं हों और सचमुच अपूर्णताएं हैं भी। 

Prayer power

प्रार्थना के प्रभाव को प्रायः संदेह की दृष्टि से देखा जाता है और स्वयं प्रार्थना निरर्थक तथा निष्फल समझी जाती है। वैश्व संकल्प सदैव अपने लक्ष्य को ही कार्यान्वित करता है। वह सर्वज्ञ होने के कारण अपने वृहत्तर ज्ञान से कर्तव्य पहले ही जान लेता है, परंतु यह व्यवस्था यांत्रिक नियम से नहीं, बल्कि कुछ शक्तियों एवं बलों के द्वारा कार्यान्वित होती है।

यह मानव संकल्प, अभीप्सा और श्रद्धा का एक विशेष रूप मात्र है। प्रारंभ में प्रार्थना निम्न स्तर भी हमारे सबंध को तैयार करने में सहायता पहुंचाती है। मुख्य वस्तु इस प्रकार का साक्षात संबंध, मनुष्य का ईश्वर से संपर्क, सचेतक आदान-प्रदान न कि पार्थिव वस्तु की प्राप्ति। 

अपनी मानसिक रचना के निर्माण के बाद यदि व्यक्ति अपने को 'ईश कृपा' पर समर्पित कर देता है, और इसमें भरोसा रखता है, तो उसको अवश्य ही सफलता मिलेगी। यदि कोई ईश्वर की कृपा का मात्र आह्वान करता है, तो अपने को उसके हाथों में सौंप देता है, तो वह विशेष अपेक्षा नहीं करता। 

प्रार्थना को सूत्रबद्ध करके किसी वस्तु के लिए निवेदन करना होगा। व्यक्ति को यह सवाल नहीं करना चाहिए। यदि सचाई के साथ सच्ची आंतरिक भावना के साथ याचना की जाए तो संभव है- वह स्वीकृत हो जाए।

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