28 January 2013

समाज सुधारक थे संत कबीर

www.goswamirishta.com भारतीय संस्कृति में संतों की महिमा अद्भुत है। समाज के गुरु ईश्वर तुल्य होते हैं। समाज में व्याप्त बुराई, अराजकता और अशांति को संत ही हमेशा से नियंत्रित करते रहे हैं। कबीरदास एक निर्भीक समाज सुधारक थे। उनके विचार आज भी समाज के लिए प्रासंगिक हैं। धर्म के ऊपर मानवता को स्थापित किया है। उन्होंने भेदभाव को भुलाकर हमेशा भाईचारे के साथ रहने की सीख दी है। सामाजिक विषमता को दूर करना ही उनकी पहली प्राथमिकता थी। उनकी जयंती पर उनके आदर्शों को जीवन में आत्मसात करना ही इस आयोजन को सार्थक बनाएगा। प्रातः बेला में मैंने परम वंदनीय कबीर दास का स्मरण किया, कमरे में टंगे चित्र पर श्रद्धा सुमन अर्पित किए और चल पड़ा गंगा नहाने। कंधे पर अंगोछा देख हमारे पड़ोसी मेहरा चौंके - 'का बात है बौरा गए हो का, ई सुबह-सुबह कहां चल दिए।' मैं मुस्कराया और बोला, 'मेहरा जी राम-राम, सब कुशल रहे इसलिए गंगा स्नान को जा रहा हूं, चलते हैं तो चलिए। मेहरा भोर के झोंके में थे। वे अपने ओरिजनल फॉर्म से औपचारिक रूप में आते हुए बोले- 'नहीं-नहीं मित्रवर, आप जाइए और दिन का शुभारंभ करिए।' मेहरा क्षण भर को ही सही, आप अपने भीतर सो रही आत्मा के सुर में बोल रहे थे, अचानक महानगरीय खोल में क्यों सिमट गए,' मैं शिकायती लहजे में बोला। 'वो क्या है कि ज्यादा देर जीवन के वास्तविक स्वरूप में रहने पर तबियत खराब होने लगती है। आजकल मैं टेंशन फ्री रहने के लिए मुक्त चिंतन का सहारा ले रहा हूं,' मेहरा ने मुझे जीवन की वास्तविकता से अवगत कराया। उनके जवाब में छुपा टेंशन फ्री रहने के लिए मुक्त चिंतन का फंडा मेरे विचारों को हिट कर गया। रहना तो मैं भी टेंशन फ्री ही चाहता हूं पर आजकल के जमानें में टेंशन फ्री रहना आसान है क्या? घर-ऑफिस, सड़क, देश-प्रदेश हर तरफ टेंशन का बोलबाला है। दिन भर किसी टेंशन से पाला न पड़े इसी टेंशन में तो सुबह-सुबह गंगा नहाने जा रहा था। मुझसे रहा नहीं गया, मैंने पूछा, 'मेहरा जी चिंतन और उन्मुक्त चिंतन तो सुना है परंतु यह मुक्त चिंतन क्या बला है।' वे मुस्कराए, उनकी मुस्कराहट में मेरे अल्पज्ञानी होने का भाव छुपा हुआ था, फिर बोले 'मुक्त चिंतन मार्केट का शब्द है, देखो इतनी बड़ी मार्केट में अगर तुम टेंशन लेकर जी रहे हो तो तुम्हारा कल्याण परमपिता परमेश्वर भी नहीं कर पाएंगे। कब तक भाग्य भरोसे किस्मत चमकने की प्रतीक्षा करते रहोगे।' मैंने कहा, 'आप मार्केट के नाम पर इक्कीसवीं सदी में चाहे जितना उछल लीजिए इसका मूल भाव तो हमारे देश की सोलहवीं सदी की उपज है जिसकी कल्पना कबीर बहुत पहले ही कर चुके हैं। वैसे आप आज बड़े खुश लग रहे हैं, क्या बात है?' मैंने बात पूरी करते हुए कहा। मेहरा जी बोले, 'उन्होंने भी लिखा है कबिरा खड़ा बाजार में..। सो टेंशन मुक्त होने के लिए बाजार में खड़े हो जाओ और खरीददारी में जुट जाओ, नकद नहीं तो उधार लो। तुम टेंशन फ्री हो जाओगे।' मैंने पूछा, 'मेहरा जी बौद्धिक स्तर पर मार्केट से विरक्ति कैसे होती है?' मेहरा बोले 'जब तुम देखते हो कि हवन सामग्री तक की मार्केटिंग में बहुराष्ट्रीय कंपनियां उतर चुकी हैं तो स्वतः तुम इस मोह-माया से विरक्त हो जाते हो। तुम कबीरवादी बन जाते हो।' मेहरा जी तो इतना कह अंदर चल दिए। मैंने गौर से अपने हुलिए पर नजर डाली और सोचा कि चलूं जल्दी से गंगा नहा लूं या अपना हुलिया बदल डालूं वरना दुनिया के बाजार में अपना कारोबार मुश्किल हो जाएगा।

अंहकार से सदा दूर रहें

www.goswamirishta.com ईश्वर को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को सर्वप्रथम अपने अहंकार को समाप्त करना होता है। जब तक व्यक्ति अहंकार के भार से दबा रहता है, तब तक परमात्मा की कृपा प्राप्त होना असंभव होता है। कभी-कभी व्यक्ति को सात्विक कार्यों में भी अहंकार हो जाता है कि मुझसे बड़ा पुण्यात्मा अथवा दानी-दाता कोई नहीं हो सकता, पर भगवान वामन रूप से आकर यह बता देते हैं कि मैं वामन (बौना) से विराट और विराट से वामन हो सकता हूं। महाराजा बलि से तीन पग भूमि मांग कर भगवान धरती और आकाश को नापा और तीसरा पग कहां रखें इस विचार से बलि की ओर देखा। बलि ने निरर्थक अभिमान के आभास में कहा- मेरे अहंकारी सिर पर तीसरा पग रखकर मेरा कल्याण कीजिए। अत: महाराजा बलि की तरह ही हमें भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अंहकार से सदा दूर रहकर जनहित, परिवार के कल्याणार्थ कार्य करें।

परमात्मा का अनमोल उपहार

www.goswamirishta.com जीवन परमात्मा का अनमोल उपहार है। यह स्वयं ही इतना दिव्य, पवित्र और परिपूर्ण है कि संसार का कोई भी अभाव इसकी पूर्णता को खंडित करने में असमर्थ है। आवश्यकता यह है कि हम अपने मन की गहराई से अध्ययन कर उसे उत्कृष्टता की दिशा में उन्मुख करें। ईर्ष्या, द्वेष, लोभ एवं अहम के दोषों से मन को विकृत करने के बजाए अपनी जीवनशैली को बदल कर सेवा, सहकार, सौहार्द जैसे गुणों के सहारे मानसिक रोगों से बचा जा सकता है और मानसिक क्षमताओं को विकसित किया जा सकता है। इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्य जीवन चार तरह की विशेषताएं लिए रहता है। इस संबंध में एक श्लोक प्रस्तुत है - बुद्धैय फलं तत्व विचारणंच/देहस्य सारं व्रतधारणं च/वित्तस्य सारं स्किलपात्र दानं/वाचः फलं प्रतिकरनाराणाम। अर्थात्- बुद्धि का फल तभी सार्थक होगा, जब उसको पूर्ण विचार करके उस पर अमल करें। शरीर का सार सभी व्रतों को धारण करने से है। धन तभी सार्थक होगा, जब वह सुपात्र को दान के रूप में मिले और बात या वचन उसी से करें, जब व्यक्ति उस पर अमल करें। इसी का बेहतर तालमेल जीवन में बिठाना होता है। जो बिठा लेता है, वह भवसागर से पार हो जाता है और जो नहीं बिठा पाता वह दुख में पड़ा गोता खाता रहता है। आप जब तक इस गहराई को नहीं समझेंगे, अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सकते हैं। जानना यह भी जरूरी है कि हम अपनी हर धड़कन की रफ्तार को समझें।

दया धर्म का मूल

www.goswamirishta.com हम बचपन से पढ़ते, सुनते आ रहे हैं ‍‍कि 'दया धर्म का मूल है'। सभी धर्मग्रंथों में दया पर ही अधिक जोर दिया गया है। अगर आप दया नहीं कर सकते हैं तो आपका यह मानव जीवन निरर्थक है। यह तो उसी प्रकार की बात हुई कि जन्म लिया, खाए-पिए, बड़े हुए, विवाह-शादी हुई, वंशवृद्धि की परिवार को आगे बढ़ाया और कालांतर में जीवन यात्रा पूरी कर पहुंच गए भगवान के घर। ऐसा जीवन तो पशु-पक्षी भी जीते हैं। ...तो फिर हम इंसानों व पशु-पक्षियों में क्या अंतर रह जाता है? बच्चों पर करें दया :- छोटे बच्चे, बिलखते बच्चे, भूखे, बीमार बच्चे, वृद्ध-वृद्धा... यह फेहरिस्त काफी लंबी है। हे मनुष्य आत्माओं, तुम इन पर दया करो। तुम्हें भगवान मिलेंगे। सिर्फ पूजा-हवन से भगवान नहीं मिलने वाला है। आपको ईश्वर की प्राप्ति के लिए दयालु बनना होगा। मन में दयाभाव व इंसानों के प्रति करुणा, विनम्रता व सहनशीलता रखनी होगी। मदर टेरेसा, महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग, विनोबा भावे तथा ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि ऐसे अनेक नाम हैं जिन्होंने अपनी दया-धर्म के बल पर ही सारे संसार में अपना नाम रोशन किया। जिसकी आभा, दीप्ति से सारा जग-संसार आज भी प्रकाशमान/प्रकाशवान है। ऐसी ‍महान वि‍भूतियों के आदर्शों का अगर हम अनुसरण व अनुकरण करें तो संसार में कोई समस्या ही नहीं रहे। 'सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे भवंतु निरामया' की भावना से संसार में सर्वत्र हरियाली व खुशहाली जैसा माहौल बन जाएगा। कहा भी गया है कि मानवता (इंसानियत) दुनिया को एकजुट करने वाली ताकत है। क्या करें दया के लिए.... :- 'अंकल/ आंटी प्लीज... एक मिनट...' यह वाक्य आपने भी कई बार सड़क से गुजरते हुए सुना, देखा होगा। स्कूल या काम पर जाते बच्चे इस तरह की लिफ्ट मांगते हैं और लोग हैं कि 'इनको' नजरअंदाज कर निकल जाते हैं। यह बात विडंबना की ही कही जाएगी। अरे भाई, किसी बच्चे को अगर आप अपने वाहन पर बिठाकर उसके मुकाम या उसके नजदीकी ठिकाने तक ही छोड़ दें तो आपको उसकी जो दुआएं मिलेंगी वो आपका जीवन सार्थक कर देंगी। आपको अपार खुशी तो मिलेगी ही इस बात की कि 'आज मैंने अपनी जिंदगी में एक अच्‍छा काम किया।' देखिएगा कि भगवान की सिर्फ पूजा-पाठ व हवन-पूजन, जप तथा उसके नाम की माला फेरने-भर से कुछ नहीं होने वाला है। आपको ईश्वर-प्राप्ति की चाह है गर तो आपको अपने आचरण को थोड़ा-सा ही सही, लेकिन सुधारना जरूर होगा। सिर्फ अपने लिए ही नहीं जिएं :- मन्ना डे की आवाज में पुरानी फिल्म का एक गाना है- 'अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ऐ दिल जमाने के लिए।' यह गीत आज की दौड़ती-भागती जिंदगी में बिलकुल सटीक बैठता है। आज हर किसी के पास एक ही चीज का अभाव है, वह है- समय। जब भी कोई कार्य के बारे में किसी को कहा जाता है तो वह यही कहता है कि 'यार, क्या करूं, मेरे पास टाइम नहीं है।' ये रटा-रटाया शब्द अधिकतर लोगों की जुबान पर रखा ही रहता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि पी‍ड़ित मानवता की सेवा कैसे की जाए? ऐसे करें सेवा... :- ठीक है आपके पास समय नहीं है तो आज के मोबाइल, ई-मेल व इंटरनेट के जमाने में भी आप 'दया को अर्पित' कर सकते हैं... वो भी घर बैठे ही! वो कैसे? ठीक है यदि आपके पास अनाथालय (अनाथाश्रम), वृद्धाश्रम, महिला श्राविका आश्रम, महिला उद्धार गृह, कुष्ठ उद्धार गृह आदि जगहों पर जाने का समय नहीं है तो आप इन आश्रमों के फोन, मोबाइल नंबरों पर संपर्क कर अपनी दान राशि भेंट कर सकते हैं। इन आश्रमों के कर्मचारी आपके घर आकर दान राशि ले जाएंगे तथा आप पुण्य के भागी बन जाएंगे। 'रोटी सेवा' की जाए :- यह लेखक अपने अनुभव आप सबके सामने साझा कर रहा है। बात कोई 2003 की है। इस लेखक को टाइफाइड, पीलिया, मलेरिया, अनिद्रा तथा जबर्दस्त दस्त की शिकायत हो गई थी। तब यह इंदौर क्लॉथ मार्केट अस्पताल में भर्ती था। इस दौरान इन्होंने देखा कि ठीक 4 बजे कुछ लोग पॉलिथीन की एक थैली में रोटी तथा एक थैली में सब्जी लेकर वार्ड-वार्ड में घूम-घूमकर मरीजों को दे रहे थे वो भी मात्र 1 रुपए में। उस समय (2003) में भी इस भोजन-सेवा की कीमत आज के 5 रुपए से कम नहीं रही होगी, पर वे मात्र 1 रुपए में यह सेवा कर रहे थे। जानकारी लेने पर मालूम हुआ था कि कुछ लोगों ने इस सेवा हेतु एक ग्रुप बनाया हुआ है तथा ग्रुप के सदस्य हर माह अपनी आमदनी में से कुछ पैसा इस ग्रुप (संगठन) में देते हैं तथा एक बाई (खाना बनाने वाली) को रखकर खाना बनवा कर अस्पताल में सप्लाय कर दिया जाता है। ...तो है न यह सेवा का अनूठा जज्बा! आत्मसंतुष्टि मिलती है :- अगर आप किसी की एक छोटी-सी भी मदद करते हैं तो वह व्यक्ति कृतज्ञ भाव से आपकी ओर देखता है तब आपको जो आत्मसंतोष मिलता है, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। कभी आप भूखे बच्चों को रोटी खिलाकर, फटेहाल व ठंड में ठिठुरते लोगों को वस्त्र पहनाकर, किसी सताई हुई नारी को यह दिलासा देते हुए कि 'बहन चिंता मत कर, तेरा भाई जिंदा है' उसके सिर पर अगर आप हाथ रखेंगे तो भावुकतावश आपकी आंखों से भी इस बात को लेकर अश्रुधारा बह निकलेगी कि आज मैंने जिंदगी में अच्‍छा काम किया है। जब ईश्वर के सामने हम अपने कर्मों का हिसाब-किताब देने हेतु खड़े होंगे तो बिलकुल निश्चिंत होंगे, क्योंकि आपके मन में यह भाव लगा रहेगा कि मैंने अपनी जिंदगी में‍ किसी आत्मा को कभी कोई कष्ट नहीं पहुंचाया। ...न बुरा बोलें व न बुरा करें :- एक इंसान होने के नाते हर व्यक्ति को चाहिए कि वह कभी भी किसी को बुरा नहीं बोले और न ही कभी बुरा कर्म ही करें। अगर आप किसी को बुरा बोलते हैं तो उसके वायब्रेशन सारे वायुमंडल में फैल जाते हैं। यह अपने, सामने वाले के साथ ही वातावरण को भी प्रदूषित करते हैं, अत: सदैव मीठा बोलें। यही बात कर्म पर भी लागू होती है। हमारे कर्म जितने अच्छे होंगे, हम ईश्वर के उतने ही करीब होंगे। रास्ते का पत्थर ही हटा दें :- ठीक है आपके पास पैसे नहीं है। तो आप यह काम तो कर ही सकते हैं कि रास्ते में एक पत्थर पड़ा है, जो आते-जाते लोगों को लहूलुहान कर रहा है। कई लोग ठोकर खाकर गिर पड़ते हैं, कई को गंभीर चोट लग भी सकती है या लगती भी है। तो अपने को चाहिए कि वो पत्थर उस जगह से हटा कर एक तरफ रख दें। अपने इस जरा-से कष्ट कई लोगों को सुविधा हो जाएगी। आपका अनजाने व खामोशी से किया गया यह कर्म आपको भी आत्मसंतुष्टि देगा व लोगों की दुआएं भी आपको मिलेंगी। ये भी कर सकते हैं :- कई चौराहों व रास्तों पर देखा गया है कि बच्चे, बुजुर्ग व महिलाएं रास्ता पार करने हेतु ट्रैफिक रुकने का इंतजार कर रहे होते हैं, किंतु ट्रैफिक है कि रुकने का ही नाम नहीं लेता। आप ऐसी स्थि‍ति में उनकी मदद के लिहाज से उनका हाथ पकड़कर रास्ता पार करा सकते हैं। यह भी बिना खर्च किए मुफ्त की एक अच्‍छी 'मानव-सेवा' है। मानव सेवा, माधव सेवा : मानव की सेवा माधव (भगवान) की सेवा के बराबर मानी गई है। आप चाहें चारों धाम की यात्रा करो, लेकिन एक इंसान की सेवा अगर जरूरत के समय नहीं करते हैं तो चारों धाम की यात्रा का कोई फल नहीं मिलने वाला। खराब वचन और खराब कर्म करने के बाद भगवान को जल, अर्घ्य व एक मन चावल अर्पित करके आप अपने द्वारा किए गए पाप से बरी नहीं हो सकते। कर्मों का फल तो हर व्यक्ति को भुगतना ही पड़ता है। इससे भगवान भी नहीं बच सके हैं तो इंसान की क्या बिसात? जिंदा हैं जिनके दम पर नाम-ओ-निशां हमारे :- यह उक्ति आपने कई बार सुनी, पढ़ी होगी। उक्त पंक्तियों का शाब्दिक अर्थ यह है कि वे लोग जो श्रेष्ठ कर्म करते हैं तथा समाज में जिनकी ‍कीर्ति है, उनके दम पर ही हमारे नाम-ओ-निशां जिंदा (बाकी) हैं। अगर समाज से श्रेष्ठ कर्म यानी दया-भाव का खात्मा हो जाए तो यह बस्ती इंसानों की बस्ती न कहलाकर पशु-पक्षियों से भी गई-बीती बस्ती कहलाएगी। इंसान द्वारा इंसान से प्रेम किया जाना मनुष्यता की पहली पहचान है। इस प्रकार हम भी अधिक नहीं तो थोड़ी सी दया-भावना मन में रखकर पी‍ड़ित मानवता की सेवा कर इस उक्ति को सार्थक कर सकते हैं कि दया धर्म का मूल है। मालवा के 'मदर टेरेसा' (सुधीर भाई गोयल) :- सेवाधाम आश्रम, उज्जैन के संचालक का नाम संपूर्ण मालवा अंचल सहित सारे देश में जाना-पहचाना है। उनके द्वारा किए गए सेवा कार्य की सुगंध सर्वत्र बिखरती जा रही है। उनमें 'मानव सेवा, माधव सेवा' का जज्बा कूट-कूट कर भरा हुआ है। उनके क्या बच्चे, क्या बुजुर्ग, या समाज की सताई हुई दुखियारी महिला हो- सबके प्रति 'मानव सेवा, माधव सेवा' की भावना से वे कार्य करते हैं। ‍बीमार, अपाहिज, विकलांग, भूखे, नेत्रहीन व कुष्ठ रोगी के प्रति जो करुणा व दया का भाव उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ है वह आजकल अन्यत्र दुर्लभ ही मिलता है। उन्होंने कई असहायों को अपनाया है तथा उनका सेवा कार्य जारी है। इस प्रकार हम दया-भाव रखकर पी‍ड़‍ित मानवता की सेवा कर सकते हैं तथा ईश्वर के काफी करीब हो सकते हैं।

जीवन मूल्यों को दर्शाते धर्म के संदेश

www.goswamirishta.com FILE प्रत्येक धर्म के मूल में प्रेम, निःस्वार्थ व्यवहार, जीवन के प्रति पूरी आस्था, सह-अस्तित्व जैसे जीवन के आवश्यक मूल्य निहित हैं। त्योहारों का उद्देश्य जीवन मूल्यों के पथ पर होने वाले किसी भी भटकाव को आंकने और उसे सुधार लेने का अवसर देना होता है। धार्मिक त्योहार इस मायने में अधिक प्रासंगिक और प्रभावी होते हैं। धर्म कौन-सा इससे ज्यादा फर्क इसलिए नहीं पड़ता है। दया, परोपकार, सहिष्णुता अस्तित्व को सुनिश्चित बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई वे मूल संप्रदाय हैं जो भारतीय समाज की प्रमुख रचना करते हैं। इसके अलावा समुदाय, संप्रदाय, जाति वर्ग के आधार पर मौजूद भिन्नताएं भी समाज की रचना के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। इतनी विविधता में भी अस्तित्व सुनिश्चित है। कल्पना कीजिए कि उपर्युक्त जीवन मूल्यों का अभाव होता। सहिष्णुता नहीं होती। जीवन में आस्था नहीं होती। स्वार्थ ही होता, निःस्वार्थ नहीं। तब क्या संभव था कि कोई किसी को जीवित रहने देता? चूंकि जीने की इच्छा प्राणीमात्र की सबसे बड़ी और सर्वाधिक प्रबल लालसा होती है, अतः धर्म रचना में पहला बिन्दु अस्तित्व को कायम रखने का पाया जाता है। इस बिन्दु की याद वह हर पर्व-त्योहार दिलवाता है जो किसी न किसी धार्मिक आस्था से जुड़ा होता है। यह समय ईसाइयत के प्रणेता यीशु मसीह के जन्मदिन का पर्व मनाने का है। ईसाइयत विश्व का सबसे बड़ा धर्म है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि इस वक्त ईसाई धर्म के अनुयायियों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है। लगभग दो हजार वर्षों से ईसा मसीह के 'निःस्वार्थ प्रेम' के मूलमंत्र के अनुसार ईसाइयत आगे बढ़ रही है। दूसरा प्रसंग स्कंदपुराण में से देखिए, 'केवल शरीर के मैल को उतार देने से ही मनुष्य निर्मल नहीं हो जाता है। मानसिक मैल का परित्याग करने पर ही वह भीतर से निर्मल होता है।' समाज में सकारात्मक सह-अस्तित्व को स्थापित करने में धर्मों को कितनी सफलता मिली, यह आकलन का एक बड़ा विषय है। धर्म इस उद्देश्य की पूर्ति में सतत लगे हैं, पूरी पारदर्शिता के साथ, यह पहली आवश्यकता है। इस दायित्व में तिनका भर विचलन भी परिणामों की नकारात्मकता को बड़ा रूप दे सकता है। स्वस्थ दृष्टिकोण कहता है कि इनकमियों को दूर करते हुए आगे बढ़ना ही विकास का पहला अर्थ है। यदि धर्म की मौजूदगी के बाद भी हिंसा, परस्पर वैमनस्य, लालच, स्वार्थ बढ़ रहे हैं तो यह पता लगाया जाना आवश्यक है कि सकारात्मक अस्तित्व को स्थापित करने की प्रक्रिया में कहीं कोई कमी या गड़बड़ी आई है। ऐसी कमियों को अनदेखा कर आगे बढ़ा जाता है तो कहते हैं कि धर्म का विवेकशील अनुपालन नहीं हो रहा है। अंधविश्वास का भी यही अर्थ होता है। अतीत में जीना और वर्तमान से कटे रहना भी इसी को कह सकते हैं। यह आग्रह प्रत्येक धर्म का है, चाहे वह जीवन धर्म ही क्यों न हो, कि समय के साथ जीवन मूल्यों का सम्मान बनाए रखकर आगे बढ़ते जाना ही जीवन है।

धर्म की महानता..

www.goswamirishta.com धर्म और संस्कृति की महानता को दर्शाने वाले राजा शिबि का दर्शन अद्वितीय और अतुलनीय है। एक पौराणिक कथा के अनुसार उशीनगर देश के राजा शिबि एक दिन अपनी राजसभा में बैठे थे। उसी समय एक कबूतर उड़ता हुआ आया और राजा की गोद में गिर कर उनके कपड़ों में छिपने लगा। कबूतर बहुत डरा जान पड़ता था। राजा ने उसके ऊपर प्रेम से हाथ फेरा और उसे पुचकारा। कबूतर से थोड़े पीछे ही एक बाज उड़ता आया और वह राजा के सामने बैठ गया। बाज बोला- मैं बहुत भूखा हूं। आप मेरा भोजन छीन कर मेरे प्राण क्यों लेते हैं? राजा शिबि बोले- तुम्हारा काम तो किसी भी मांस से चल सकता है। तुम्हारे लिए यह कबूतर ही मारा जाए, इसकी क्या आवश्यकता है। तुम्हें कितना मांस चाहिए? बाज कहने लगा- महाराज! कबूतर मरे या दूसरा कोई प्राणी मरे, मांस तो किसी को मारने से ही मिलेगा। राजा ने विचार किया और बोले- मैं दूसरे किसी प्राणी को नहीं मारूंगा। अपना मांस ही मैं तुम्हें दूंगा। एक पलड़े में कबूतर को बैठाया गया और दूसरे पलड़े में महाराज अपने शरीर के एक-एक अंग रखते गए। आखिर में राजा खुद पलड़े में बैठ गए। बाज से बोले- तुम मेरी इस देह को खाकर अपनी भूख मिटा लो। महाराज जिस पलड़े पर थे, वह पलड़ा इस बार भारी होकर भूमि पर टिक गया था और कबूतर का पलड़ा ऊपर उठ गया था। लेकिन उसी समय सबने देखा कि बाज तो साक्षात देवराज इन्द्र के रूप में प्रकट हो गए है और कबूतर बने अग्नि देवता भी अपने मूल रूप में खड़े हैं। अग्नि देवता ने कहा- महाराज! आप इतने बड़े धर्मात्मा हैं कि आपकी बराबरी मैं तो क्या, विश्व में कोई भी नहीं कर सकता। इन्द्र ने महाराज का शरीर पहले के समान ठीक कर दिया और बोले- आपके धर्म की परीक्षा लेने के लिए हम लोगों ने यह बाज और कबूतर का रूप बनाया था। आपका यश सदा अमर रहेगा। दोनों पक्षी बने देवता महाराज की प्रशंसा करके और उन्हें आशीर्वाद देकर अंतर्र्ध्यान हो गए। ऐसे कई सच्चे उदाहरण हमारे चारों ओर बिखरे पड़े हैं, जो हमारी संस्कृति और धर्म की महानता व व्यापकता दर्शाते हैं। हमारा दर्शन अद्वितीय और अतुलनीय है। स्वयं कष्ट उठा कर भी शरणागत और प्राणी मात्र की भलाई चाहने वाली संस्कृति और कहां मिलेगी। वहीं ऐसा राजा भी कहां मिलेगा, जो नाइंसाफी नहीं हो जाए, इसलिए स्वयं को ही भोजन हेतु समर्पित कर दें।

समभाव मैं है जीवन की सार्थकता

www.goswamirishta.com संत एकनाथजी के पास एक व्यक्ति आया और बोला - नाथ! आपका जीवन कितना मधुर है। हमें तो शांति एक क्षण भी प्राप्त नहीं होती। कृपया मार्गदर्शन करें। एकनाथजी ने कहा - तू तो अब आठ ही दिनों का मेहमान है, अतः पहले की ही भांति अपना जीवन व्यतीत कर। यह सुनते ही वह व्यक्ति उदास हो गया। घर गया और पत्नी से बोला - मैंने तुम्हें कई बार नाहक ही कष्ट दिया है। मुझे क्षमा करो। फिर बच्चों से बोला - बच्चों, मैंने तुम्हें कई बार पीटा है, मुझे उसके लिए माफ करो। जिन लोगों से उसने दुर्व्यवहार किया था, सबसे माफी मांगी। इस तरह आठ दिन व्यतीत हो गए और नौवें दिन वह एकनाथजी के पास पहुंचा और बोला - नाथ, मेरी अंतिम घड़ी के लिए कितना समय शेष है? एकनाथजी बोले - तेरी अंतिम घड़ी तो परमेश्वर ही बता सकता है, किंतु तेरे यह आठ दिन कैसे व्यतीत हुए? भोग-विलास और आनंद तो किया ही होगा? वह व्यक्ति बोला - क्या बताऊं नाथ, मुझे इन आठ दिनों में मृत्यु के अलावा और कोई चीज दिखाई नहीं दे रही थी। इसीलिए मुझे अपने द्वारा किए गए सारे दुष्कर्म स्मरण हो आए और उसके पश्चाताप में ही यह अवधि बीत गई। एकनाथजी बोले - मित्र, जिस बात को ध्यान में रखकर तूने यह आठ दिन बिताए हैं, हम साधु लोग इसी को सामने रखकर सारे काम किया करते हैं। यह देह क्षणभंगुर है, इसे मिट्टी में मिलना ही है। इसका गुलाम होने की अपेक्षा परमेश्वर का गुलाम बनो। सबके साथ समान भाव रखने में ही जीवन की सार्थकता है।

लाला लाजपत राय

www.goswamirishta.com बाल-लाल-पाल त्रयी के स्वतंत्रता आन्दोलन में संकलित राष्ट्रीय योगदान में लाला लाजपत राय का सम्माननीय स्थान है। कोलकाता के विशेष अधिवेशन (1920) के अध्यक्ष रहे लालाजी लुधियाना जिले में दुंद्धिक नाम के गांव में जन्मे थे। किशोरावस्था में स्वामी दयानंद सरस्वती से मिलने के बाद आर्य समाजी विचारों ने उन्हें प्रेरित किया। आजादी के संग्राम में वे तिलक के राष्ट्रीय चिंतन से भी बेहद प्रभावित रहे। गोखले के साथ लाजपत राय 1905 में कांग्रेस प्रतिनिधि के रूप में इंग्लैंड गए और वहां की जनता के सामने भारत की आजादी का पक्ष रखा। 1907 में पूरे पंजाब में उन्होंने खेती से संबंधित आन्दोलन का नेतृत्व किया और वर्षों बाद 1926 में जिनेवा में राष्ट्र के श्रम प्रतिनिधि बनकर गए। लालाजी 1908 में पुनः इंग्लैंड गए और वहां भारतीय छात्रों को राष्ट्रवाद के प्रति जागृत किया। उन्होंने 1913 में जापान व अमेरिका की यात्राएं की और स्वदेश की आजादी के पक्ष को जताया। उन्होंने अमेरिका में 15 अक्टूबर, 1916 को 'होम रूल लीग' की स्थापना की। नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय छात्र संघ सम्मेलन (1920) के अध्यक्ष के नाते छात्रों को उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़ने का आह्वान किया। 1921 में वे जेल गए। 30 अक्टूबर, 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन विरोधी जुलूस का नेतृत्व करने के दौरान राय गंभीर रूप से घायल हुए और 17 नवंबर, 1928 को उनका निधन हुआ। उनकी मौत का बदला लेने के लिए ही भगतसिंह, सुखदेव एवं राजगुरु ने सांडर्स की हत्या की थी। लाला लाजपत राय के प्रभावी वाक्य :- * 'जो अमोघ और अधिकतम राष्ट्रीय शिक्षा लाभकारी राष्ट्रीय निवेश है, राष्ट्र की सुरक्षा के लिए उतनी ही आवश्यक है जितनी भौतिक प्रतिरक्षा के लिए सैन्य व्यवस्था। * ऐसा कोई भी श्रम रूप अपयशकर नहीं है जो सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो और समाज को जिसकी आवश्यकता हो।' * 'राजनीतिक प्रभुत्व आर्थिक शोषण की ओर ले जाता है। आर्थिक शोषण पीड़ा, बीमारी और गंदगी की ओर ले जाता है और ये चीजें धरती के विनीततम लोगों को सक्रिय या निष्क्रिय बगावत की ओर धकेलती हैं और जनता में आजादी की चाह पैदा करती हैं।'

महान संत कैसे बने

www.goswamirishta.com एक बार किसी ने हरि बाबा से पूछा कि: ‘‘बाबा ! आप ऐसे महान संत कैसे बने ?’’ हरि बाबा ने कहा: ‘‘बचपन में जब हम खेल खेलते थे तो एक साधु भिक्षा लेकर आते और हमारे साथ खेल खेलते। एक दिन साधु भिक्षा लाये और उनके पीछे वह कुत्ता लग गया, जिसे वह रोज टुकड़ा देते थे। पर उस दिन टुकड़ा दिया नहीं और झोले को एक ओर टांगकर हमारे साथ खेलने लगे किंतु कुत्ता झोले की ओर देखकर पूँछ हिलाये जा रहा था। तब बाबा ने कुत्ते से कहा: ‘चला जा, आज मुझे कम भिक्षा मिली है। तू अपनी भिक्षा माँग ले।’ फिर भी कुत्ता खड़ा रहा। तब पुनः बाबा ने कहा: ‘जा, यहां क्यों खड़ा है? क्यों पूँछ हिला रहा है?’ तीन-चार बार बाबा ने कुत्ते से कहा, किंतु कुत्ता गया नहीं। तब बाबा आ गये अपने बाबापने में और बोले: ‘जा, उलटे पैर लौट जा।’ तब वह कुत्ता उलटे पैर लौटने लगा। यह देखकर हम लोग दंग रह गये। हमने खेल बंद कर दिया और बाबा के पैर छुए। बाबा से पूछा: ‘बाबा! यह क्या, कुत्ता उलटे पैर जा रहा है! आपके पास ऐसा कौन-सा मंत्र है कि वह ऐसे चल रहा है?’ बोले: ‘बेटा! वह बड़ा सरल मंत्र है- सब में एक , एक में सब। तू उसमें टिक जा बस!’ तब से हम साधु बन गये।’’ मैं कहता हूं तुम्हारे आत्मदेव में इतनी शक्ति है, तुम्हारे चित्त में चैतन्य प्रभु का ऐसा सामर्थ्य है कि तुम चाहो तो भगवान को साकार रूप में प्रकट कर सकते हो, तुम चाहो तो भगवान को सखा बना सकते हो, तुम चाहो तो दुष्ट-से-दुष्ट व्यक्ति को सज्जन बना सकते हो, तुम चाहो तो देवताओं को प्रकट कर सकते हो। देवता अपने लोक में हों चाहे नहीं हों, तुम मनचाहा देवता पैदा कर सकते हो और मनचाहे देवता से मनचाहा वरदान प्राप्त कर सकते हो, ऐसी आपकी चेतना में ताकत है। तो ‘सब में एक- एक में सब’ इसमें जो संत टिके होते हैं, वे तो ऐसी हस्ती होते हैं कि जहाँ आस्तिक भी झुक जाता है, नास्तिक भी झुक जाता है, कुत्ता तो क्या देवता भी जिनकी बात मानते हैं, दैत्य भी मानते हैं और देवताओं के देव भगवान भी जिनकी बात रखते हैं। सब-के-सब लोग ऐसे ब्रह्मनिष्ठ सत्पुरुष को चाहते हैं एवं उनकी बात मानते हैं।

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