22 January 2013

नागा बाबाओं की रहस्मय दुनिया

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शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए संन्यासी संघों का गठन किया था। बाहरी आक्रमण से बचने के लिए कालांतर में संन्यासियों के सबसे बड़े संघ जूना आखाड़े में संन्यासियों के एक वर्ग को विशेष रूप से शस्त्र-अस्त्र में पारंगत करके संस्थागत रूप प्रदान किया।

वनवासी समाज के लोग अपनी रक्षा करने में समर्थ थे, और शस्त्र प्रवीण भी। इन्हीं शस्त्रधारी वनवासियों की जमात नागा साधुओं के रूप में सामने आई। ये नागा जैन और बौद्ध धर्म भी सनातन हिन्दू परम्परा से ही निकले थे। वन, अरण्य, नामधारी संन्यासी उड़ीसा के जगन्नाथपुरी स्थित गोवर्धन पीठ से संयुक्त हुए।

आज संतों के तेरह-चौदह अखाड़ों में सात संन्यासी अखाड़े (शैव) अपने-अपने नागा साधु बनाते हैं:- ये हैं जूना, महानिर्वणी, निरंजनी, अटल, अग्नि, आनंद और आवाहन अखाड़ा।
आदि शंकराचार्य ने देश के चार कोनों में बौद्ध विहारों की तर्ज पर दक्षिण में श्रृंगेरी, पूर्व में पूरी, पश्चिम में द्वारका व उत्तर में बद्रीनाथ में मठ स्थापित किए। शंकराचार्य ने संन्यासियों की दस श्रेणियां- ‘गिरी, पूरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ और आश्रम’ बनाईं, जिसके चलते ये दशनामी संन्यास प्रचलित हुआ।

दशनामियों के दो कार्यक्षेत्र निश्चित किए- पहला शस्त्र और दूसरा शास्त्र।

यह भी कहा जाता है कि शंकराचार्य के सुधारवाद का तत्कालीन समाज में खूब विरोध भी हुआ था और साधु समाज को उग्र और हिंसक साम्प्रदायिक विरोध से जूझना पड़ता था। काफी सोच-विचार के बाद शंकराचार्य ने वनवासी समाज को दशनामी परम्परा से जोड़ा, ताकि उग्र विरोध का सामना किया जा सके।

वनवासी समाज के लोग अपनी रक्षा करने में समर्थ थे, और शस्त्र प्रवीण भी। इन्हीं शस्त्रधारी वनवासियों की जमात नागा साधुओं के रूप में सामने आई। ये नागा जैन और बौद्ध धर्म भी सनातन हिन्दू परम्परा से ही निकले थे। वन, अरण्य, नामधारी संन्यासी उड़ीसा के जगन्नाथपुरी स्थित गोवर्धन पीठ से संयुक्त हुए।

पश्चिम में द्वारिकापुरी स्थित शारदपीठ के साथ तीर्थ एव आश्रम नामधारी संन्यासियों को जोड़ा गया।

उत्तर स्थित बद्रीनाथ के ज्योतिर्पीठ के साथ गिरी, पर्वत और सागर नामधारी संन्यासी जुड़े, तो सरस्वती, पुरी और भारती नामधारियों को दक्षिण के श्रृंगेरी मठ के साथ जोड़ा गया।

हिन्दुओं की आश्रम परम्परा के साथ अखाड़ों की परंपरा भी प्राचीनकाल से ही रही है। अखाड़ों का आज जो स्वरूप है उस रूप में पहला अखाड़ा ‘अखंड आह्वान अखाड़ा’ सन् 547 ई. में सामने आया। इसका मुख्य कार्यालय काशी में है और शाखाएं सभी कुम्भ तीर्थों पर हैं।

कैसे बनता है व्यक्ति नागा साधु

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 नागा जीवन की विलक्षण परंपरा में दीक्षित होने के लिए वैराग्य भाव का होना जरूरी है। संसार की मोह-माया से मुक्त कठोर दिल वाला व्यक्ति ही नागा साधु बन सकता है।

साधु बनने से पूर्व ही ऐसे व्यक्ति को अपने हाथों से ही अपना ही श्राद्ध और पिंड दान करना होता है। अखाड़े किसी को आसानी से नागा रूप में स्वीकार नहीं करते। बाकायदा इसकी कठोर परीक्षा ली जाती है जिसमें तप, ब्रह्मचर्य, वैराग्य, ध्यान, संन्यास और धर्म का अनुशासन तथा निष्ठा आदि प्रमुखता से परखे-देखे जाते हैं।

कठोर परीक्षा से गुजरने के बाद ही व्यक्ति संन्यासी जीवन की उच्चतम तथा अत्यंत विकट परंपरा में शामिल होकर गौरव प्राप्त करता है। इसके बाद इनका जीवन अखाड़ों, संत परंपराओं और समाज के लिए समर्पित हो जाता है।

नागा बाबाओं की रहस्‍यमय दुनिया की रोचक जानकारियां

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कुम्भ मेले में शैवपंथी नागा साधुओं को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती है। नागा साधुओं की रहस्यमय जीवन शैली और दर्शन को जानने के लिए विदेशी श्रद्धालु ज्यादा उत्सुक रहते हैं। कुम्भ के सबसे पवित्र शाही स्नान में सबसे पहले स्नान का अधिकार इन्हें ही मिलता है।

नागा साधुओं का अद्भुत रूप : नागा साधु अपने पूरे शरीर पर भभूत मले, निर्वस्त्र रहते हैं। उनकी बड़ी-बड़ी जटाएं भी आकर्षण का केंद्र रहती है। हाथों में चिलम लिए और चरस का कश लगते हुए इन साधुओं को देखना अजीब लगता है।

मस्तक पर आड़ा भभूत लगा तीनधारी तिलक लगा कर धूनी रमा कर, नग्न रह कर और गुफाओं में तप करने वाले नागा साधुओं का उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में भी मिलता है। यह साधु उग्र स्वभाव के होते हैं।

कुंभ के बाद कहां चले जाते हैं नागा बाबा?

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कुंभ, अर्धकुंभ और महाकुंभ आते ही लाखों की संख्या में आपको नागा बाबा डुबकी लगाते हुए दिखाई दे जाएंगे। लेकिन, कभी किसी ने सोचा है कि नागा बाबा कहां से आते हैं और कहां चले जाते हैं?

17 श्रृंगार की हुई संयम से बंधी निर्वस्‍त्र साधुओं की फौज को देखना अद्भुत है। यह नजारा आपको कुंभ के अलावा और कहां नजर आएगा? इन साधुओं को वनवासी संन्यासी कहा जाता है। दरअसल यह कुंभ के अलावा कभी भी सार्वजनिक जीव में दिखाई नहीं देते क्योंकि ये या तो अपने अखाड़े (आश्रम) के भीतर ही रहते हैं या हिमालय की गुफा में या फिर अकेले ही देशभर में पैदल ही घुमते रहते हैं।

जो चले जाते हैं हिमालय : कुंभ के समाप्त होने के बाद अधिकतर साधु अपने शरीर पर भभूत लपेट कर हिमालय की चोटियों के बीच चले जाते हैं। वहां यह अपने गुरु स्थान पर अगले कुंभ तक कठोर तप करते हैं। इस तप के दौरान ये फल-फूल खाकर ही जीवित रहते हैं।

12 साल तक कठोर तप करते वक्‍त उनके बाल कई मीटर लंबे हो जाते हैं। और ये तप तभी संपन्‍न होता है, जब ये कुंभ मेले के दौरान गंगा में डुबकी लगाते हैं। जी हां कहा जाता है कि गंगा स्नान के बाद ही एक नागा साधु का तप खत्म होता है।

त्रिशूल, शंख, तलवार और चिलम धारण किए ये नागा साधु धूनी रमाते हैं। यह शैवपंथ के कट्टर अनुयायी और अपने नियम के पक्के होते हैं। इनमें से कई सिद्ध होते हैं तो कई औघड़।

कुंभ मेला : 'अमृत मंथन'

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भारत के नाट्‌य शास्त्र में जिन नाटकों के मंचन का उल्लेख मिलता है उनमें 'अमृत मंथन' सर्वप्रथम गिना जाता है। भारतीय नाटक देवासुर-संग्राम की पृष्ठभूमि में जन्मा, इसे जानने के बाद कुंभ का महत्व और बढ़ जाता है और प्राचीनता भी अधिक सिद्ध होती है।

'अमृत मंथन' के अभिनय से पूर्व कुंभ-स्थापन का उल्लेख भरत ने किया है पर वह पूजा के अंग रूप में ग्रहण किया गया है। 'अमृत कुंभ' से उसका सीधा संबंध नहीं है, किन्तु कुंभ की कल्पना अवश्य उससे सम्बद्ध मानी जा सकती है।

कुम्भं सलिल-सम्पूर्ण पुष्पमालापुरस्कृत्‌म।
स्थापयेद्रंगमध्ये तु सुवर्ण चात्र दापयेत्‌
एवं तु पूजनं कृत्वा मया प्रोक्तः पितामहः।
आज्ञापय विभौ क्षिप्रं कः प्रयोगाः प्रयुज्यताम्‌।
सचेतनो स्म्युक्तो भगवता योजयामृतमंथनम्‌ एतदुत्साहजननं सुरप्रीतिकरः तथा

अर्थः-रंगपीठ के मध्य में पुष्पमालाओं से सज्जित जल से पूर्ण कुंभ स्थापित करना चाहिए और उसके भीतर स्वर्ण डालना चाहिए।

इस प्रकार पूजन करके मैंने ब्रह्मा से कहा- 'हे वैभवशाली, शीघ्र आज्ञा प्रदान करें कि कौन-सा नाटक खेला जाए। तब भगवान ब्रह्मा द्वारा मुझसे कहा गया-'अमृत मंथन का अभिनय करो। यह उत्साह बढ़ाने वाला तथा देवताओं के लिए हितकर है।

वह नाट्‌य-प्रकार 'समवकार' कहलाता था और भरत द्वारा उसका अभिनय धर्म और अर्थ को सिद्ध करने वाला माना गया है। देवताओं के साथ शंकर की अभ्यर्थना भी की गई। 'अमृत मंथन' से इस प्रकार ब्रह्मा-विष्णु-महेश की एकता और देवताओं की प्रसन्नता अभीष्ट रही, जो आज तक चली आ रही है।

'त्रिपुरा-दाह' का अभिनय 'अमृत मंथन' के बाद हुआ, भरत मुनि के इस कथन से 'अमृत मंथन' की कथा व महत्ता और बढ़ जाती है। नाट्‌यवेद की रचना जम्बूद्वीप के भरत खण्ड में पंचम वेद के रूप में मानी गई, क्योंकि शूद्र जाति द्वारा वेद का व्यवहार उनके समय निषिद्ध माना जाता था।

यह पांचवां वेद सब वर्णों के लिए रचा गया, क्योंकि भरत शूद्र जाति को भी अधिकार सम्पन्न बनाना चाहते थे, साथ ही अन्य वर्णों का भी उन्हें ध्यान था। 'सार्ववर्णिकम्‌' शब्द इसलिए महत्वपूर्ण है।

यथा-
न वेदव्यवहारों यं संश्रव्यं शूद्रजातिषु।
तस्मात्सृजापरं वेदं पंचमं सार्ववर्णिकम्‌।

कुंभ का महत्व भी इसी प्रकार सभी वर्णों के समन्वित है। किसी वर्ण का गंगा स्नान अथवा कुंभ-स्नान में निषेध नहीं है। वर्णेत्तर लोग भी स्नान करते रहे हैं।

विष्णु के चरणों से चौथे वर्ण की उत्पत्ति मानी गई है और गंगा भी विष्णु के चरणों से निकली हैं ऐसी पौराणिक मान्यता है। दोनों का विशेष संबंध सांस्कृतिक दृष्टि से उपकारक एवं प्रेरक सिद्ध होगा। इस प्रकार कुंभ हर प्रकार के भेदभाव का निषेध करता है।
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Dekh tere sansar ki halat

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श्री हनुमान चालीसा

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आज मंगलवार है महावीर का वार है, ये सच्चा दरबार है सचे मन सो जो कोइ ध्यावे उसका बेड़ा पार है.

श्री हनुमान चालीसा |

दोहा-ॐ श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारी ||
बनरऊँ रघुवर विमल जसु, जो दायकु फल चारी ||
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरों पवन कुमार ||
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेस विकार ||
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर | जय कपीस तिहूँ लोक उजागर ||
रामदूत अतुलित बल धामा | अंजनी पुत्र पवनसुत नामा ||
महावीर विक्रम बजरंगी | कुमति निवार सुमति के संगी ||
कंचन बरन विराज सुबेसा | कानन कुण्डल कुंचित केसा ||
हाथ बज्र औ ध्वजा विराजे | काँधे मूँज जनेऊ साजे ||
संकर सुवन केसरीनंदन | तेज प्रताप महा जग बन्दन ||
विद्यावान गुनी अति चातुर | राम काज करिबे को आतुर ||
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया | राम लखन सीता मन बसिया ||
सूक्ष्म रूप धरी सियहिं दिखावा | विकट रूप धरि लंक जरावा ||
भीम रूप धरि असुर सँहारे | रामचंद्र के काज सँवारे ||
लाय संजीवन लखन जियाये | श्री रघुवीर हरषि उर लाये ||
रघुपति किन्ही बहुत बड़ाई | तुम मम प्रिय भरतही सम भाई ||
सहस बदन तुम्हरो जस गावें | अस कही श्रीपति कठ लगावें ||
सनकादिक ब्रह्मादी मुनीसा | नारद सारद सहित अहीसा ||
जम कुबेर दिकपाल जहाँ ते | कवि कोविद कही सके कहाँ ते ||
तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा | राम मिलाय राजपद दीन्हा ||
तुम्हरो मन्त्र विभीसन माना | लंकेस्वर भये सब जग जाना ||
जुग सहस जोजन पर भानु | लील्यो ताहि मधुर फल जानू ||
प्रभु मुद्रिका मेली मुख माहि | जलधि लांघी गये अचरज नाही ||
दर्गम काज जगत के जेते | सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ||
राम दुआरे तुम रखवारे | होत न आज्ञा बिनु पैसारे ||
सब सुख लहें तुम्हारी सरना | तुम रक्षक काहू को डरना ||
आपन तेज सम्हारो आपे | तीनो लोक हाँक ते काँपे ||
भूत पिशाच निकट नहि आवे | महावीर जब नाम नाम सुनावे ||
नासे रोग हरि सब पीरा | जपत निरंतर हनुमत बीरा ||
संकट ते हनुमान छुडावे | मन क्रम वचन ध्यान जो लावे ||
सब पर राम तपस्वी राजा | तिन के काज सकल तुम साजा ||
और मनोरथ जो कोई लावे | सोई अमित जीवन फल पावे ||
चारों जुग प्रताप तुम्हारा | हें परसिद्ध जगत उजियारा ||
साधु संत के तुम रखवारे | असुर निकन्दन राम दुलारे ||
अस्ट सिद्धि नों निधि के दाता | अस बर दीन जानकी माता ||
राम रसायन तुम्हरे पासा | सदा रहो रघुपति के दासा ||
तुम्हरे भजन राम को पावे | जनम जनम के दुःख बिसरावे ||
अन्त काल रघुवर पुर जाई | जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई ||
और देवता चित्त न धरई | हनुमत सेई सर्ब सुख करई ||
संकट कटे मिटे सब पीरा | जो सुमिरे हनुमत बलबीरा ||
जे जे जे हनुमान गोसाई | कृपा कहु गुरुदेव की नाई ||
जो सत बार पाठ कर कोई | छुटेहि बंदि महा सुख होई ||
जो यह पड़े हनुमान चालीसा | होई सिद्धि साखी गोरिसा ||
तुलसीदास सदा हरि चेरा | कीजे नाथ ह्रदय महँ डेरा ||
पवन तनय संकट हरण, मंगल मूरति रूप ||
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ||

सुंदर वो जो सुंदर कार्य करे

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मैं पाप बेचती हूँ

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एक बार घूमते-घूमते कालिदास बाजार गये | वहाँ एक महिला बैठी मिली | उसके पास एक मटका था और कुछ प्यालियाँ पड़ी थी | कालिदास ने उस महिला से पूछा : ” क्या बेच रही हो ? “

महिला ने जवाब दिया : ” महाराज ! मैं पाप बेचती हूँ | “
कालिदास ने आश्चर्यचकित होकर पूछा : ” पाप और मटके में ? “
महिला बोली : ” हाँ , महाराज ! मटके में पाप है | “
कालिदास : ” कौन-सा पाप है ? “
महिला : ” आठ पाप इस मटके में है | मैं चिल्लाकर कहती हूँ की मैं पाप बेचती हूँ पाप … और लोग पैसे देकर पाप ले जाते है |”
अब महाकवि कालिदास को और आश्चर्य हुआ : ” पैसे देकर लोग पाप ले जाते है ? “
महिला : ” हाँ , महाराज ! पैसे से खरीदकर लोग पाप ले जाते है | “
कालिदास : ” इस मटके में आठ पाप कौन-कौन से है ? “
महिला : ” क्रोध ,बुद्धिनाश , यश का नाश , स्त्री एवं बच्चों के साथ अत्याचार और अन्याय , चोरी , असत्य आदि दुराचार , पुण्य का नाश , और स्वास्थ्य का नाश … ऐसे आठ प्रकार के पाप इस घड़े में है | “

कालिदास को कौतुहल हुआ की यह तो बड़ी विचित्र बात है | किसी भी शास्त्र में नहीं आया है की मटके में आठ प्रकार के पाप होते है | वे बोले : ” आखिरकार इसमें क्या है ? ” //
महिला : ” महाराज ! इसमें शराब है शराब ! “
कालिदास महिला की कुशलता पर प्रसन्न होकर बोले : ” तुझे धन्यवाद है ! शराब में आठ प्रकार के पाप है यह तू जानती है और ‘ मैं पाप बेचती हूँ ‘ ऐसा कहकर बेचती है फिर भी लोग ले जाते है | धिक्कार है ऐसे लोगों को !

अपमान

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एक समय की बात है। चाणक्य अपमान भुला नहीं पा रहे थे। शिखा की खुली गांठ हर पल एहसास कराती कि धनानंद के राज्य को शीघ्राति शीघ्र नष्ट करना है। चंद्रगुप्त के रूप में एक ऐसा होनहार शिष्य उन्हें मिला था जिसको उन्होंने बचपन से ही मनोयोग पूर्वक तैयार किया था।

अगर चाणक्य प्रकांड विद्वान थे तो चंद्रगुप्त भी असाधारण और अद्भुत शिष्य था। चाणक्य बदले की आग से इतना भर चुके थे कि उनका विवेक भी कई बार ठीक से काम नहीं करता था।

चंद्रगुप्त ने लगभग पांच हजार घोड़ों की छोटी-सी सेना बना ली थी। सेना लेकर उन्होंने एक दिन भोर के समय ही मगध की राजधानी पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। चाणक्य, धनानंद की सेना और किलेबंदी का ठीक आकलन नहीं कर पाए और दोपहर से पहले ही धनानंद की सेना ने चंद्रगुप्त और उसके सहयोगियों को बुरी तरह मारा और खदेड़ दिया।

चंद्रगुप्त बड़ी मुश्किल से जान बचाने में सफल हुए। चाणक्य भी एक घर में आकर छुप गए। वह रसोई के साथ ही कुछ मन अनाज रखने के लिए बने मिट्टी के निर्माण के पीछे छुपकर खड़े थे। पास ही चौके में एक दादी अपने पोते को खाना खिला रही थी।

दादी ने उस रोज खिचड़ी बनाई थी। खिचड़ी गरमा-गरम थी। दादी ने खिचड़ी के बीच में छेद करके गरमा-गरम घी भी डाल दिया था और घड़े से पानी भरने गई थी। थोड़ी ही देर के बाद बच्चा जोर से चिल्ला रहा था और कह रहा था- जल गया, जल गया।

दादी ने आकर देखा तो पाया कि बच्चे ने गरमा-गरम खिचड़ी के बीच में अंगुलियां डाल दी थीं।

दादी बोली- 'तू चाणक्य की तरह मूर्ख है, अरे गरम खिचड़ी का स्वाद लेना हो तो उसे पहले कोनों से खाया जाता है और तूने मूर्खों की तरह बीच में ही हाथ डाल दिया और अब रो रहा है...।'

चाणक्य बाहर निकल आए और बुढ़िया के पांव छूए और बोले- आप सही कहती हैं कि मैं मूर्ख ही था तभी राज्य की राजधानी पर आक्रमण कर दिया और आज हम सबको जान के लाले पड़े हुए हैं।

चाणक्य ने उसके बाद मगध को चारों तरफ से धीरे-धीरे कमजोर करना शुरू किया और एक दिन चंद्रगुप्त मौर्य को मगध का शासक बनाने में सफल हुए।

स्वयं के सेवक

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दूसरों के नहीं स्वयं के सेवक बनो !!!

एक जज साहब कार में जा रहे थे, अदालत की ओर। मार्ग में देखा कि एक कुत्ता नाली में फंसा हुआ है। जीने की इच्छा है, किंतु प्रतीक्षा है कि कोई आए और उसे कीचड़ से बाहर निकाल दे। जज साहब ने कार रुकवाई और पहुंचे उस कुत्ते के पास। उनके दोनों हाथ नीचे झुक गए और कुत्ते को निकाल कर सड़क पर खड़ा कर दिया। सेवा वही कर सकता है जो झुकना जानता है।

बाहर निकलते ही कुत्ते ने जोर से सारा शरीर हिलाया और पास खड़े जज साहब के कपड़ों पर ढेर सारा कीचड़ लग गया। सारे कपड़ों पर कीचड़ के धब्बे लग गए। किंतु जज साहब घर नहीं लौटे। उन्हीं वस्त्रों में पहुंच गए अदालत में। सभी चकित हुए, किंतु जज साहब के चेहरे पर अलौकिक आनंद की आभा थी।

वे शांत थे। लोगों के बार-बार पूछने पर बोले, मैंने अपने हृदय की तड़पन मिटाई है, मुझे बहुत शांति मिली है। वास्तव में दूसरे की सेवा करने में हम अपनी ही वेदना मिटाते हैं। दूसरों की सेवा हम कर ही नहीं सकते। वे तो मात्र निमित्त बन सकते हैं। उन निमित्तों के सहारे हमें अपने अंतरंग में उतरना होता है, यही सबसे बड़ी सेवा है।

वास्तविक सुख स्वावलंबन में है। आपको शायद याद होगा, उस हाथी का किस्सा जो दलदल में फंस गया था। वह जितना प्रयास करता उतना अधिक धंसता जाता। बाहर निकलने का एक ही मार्ग था कि कीचड़ सूर्य की धूप में सूख जाए। इसी तरह आप भी संकल्पों - विकल्पों के दलदल में फंस रहे हो। अपनी ओर देखने का अभ्यास करो, अपने आप ही ज्ञान की किरणों से यह मोह की कीचड़ सूख जाएगी।

बस अपनी सेवा में जुट जाओ, अपने आपको कीचड़ से बचाने का प्रयास करो।

महावीर ने यही कहा है, 'सेवक बनो स्वयं के।' और खुदा ने भी यही कहा है, 'खुद का बंदा बन।' एक सज्जन जब भी आते हैं , एक अच्छा शेर सुना कर जाते हैं। हमें याद हो गया है :

अपने दिल में डूब कर पा ले सुरागे जिंदगी।
तू अगर मेरा नहीं बनता , न बन , अपना तो बन।।

सेवक मत बनो , स्वयं के सेवक बनो। भगवान के सेवक भी स्वयं के सेवक नहीं बन पाते। खुदा का बंदा बनना आसान है , किंतु खुद का बंदा बनना कठिन है। खुद के बंदे बनो। भगवान की सेवा हम और आप क्या कर सकेंगे , वे तो निर्मल और निराकार हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में अकेले जीने की बात को आत्मविकास का प्रयास माना जाता है , क्योंकि वहां यही चिंतन शेष रहता है कि व्यक्ति अकेला जनमता है , अकेला मरता है। यहां कोई अपना - पराया नहीं। सुख - दुख भी स्वयं द्वारा कृत कर्मों का फल है। क्यों किसी के लिए जीएं ?
सामाजिक दृष्टि से सबके लिए जीने को तत्पर बने।

जगत में सबसे सुंदर अपना आत्मस्वरूप

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व्यक्ति थोड़ा सा रूप क्या पा लेता है, आकाश में उड़ने लगता है । रूप के घमंड में इतराकर बातें करना शुरू कर देता है । उसके पैर धरती पर नहीं पड़ते हैं । मेरे जैसा रूप तो किसी का ही नहीं । मैं कितना सुंदर हूँ, जब में सड़क पर चलता हूँ तो हर व्यक्ति की दृष्टि मेरी तरफ आ जाती है । लोग इधर उधर न देख कर सब मेरी और देखने लगते है । तुमने देखा नहीं जब में सजधज कर भगवान के दर्शन हेतू मंदिरजी में जाता हूँ या जाती हूँ तो एक बार लोगों का ध्यान पूजा से हटकर मेरी तरफ आकर्षित हो जाता है ।
किस रूप पर अभिमान कर रहे हो मेरे भाई ? तनिक विचार करो, अपने जिस रूप पर आज इतना इतरा रहे हो, पच्चीस साल आगे के रूप को देखोगे तो तुम्हारे चेहरे पर दुनियाँ भर की झुरियाँ दिखाई देने लगेगी । और थोड़ा आगे जाकर के अपनी नजर को दौड़ाओगे तो यह सुंदर सलोना रूप चिता पर सुलगता हुआ दिखाई देगा । तो मेरे भाई ये है तुम्हारी दशा किस रूप पर तुम इतराते हो ? जिस जिस ने भी अपने स्वरूप को भूलकर रूप पर अभिमान किया है, उसकी अन्तिम परिणति यही रही है । पर क्या बताऊँ बंधुओं, आज तो भगवान के दर्शन करने के लिए, जहाँ लोग स्वरूप बोघ के दर्शन के लिए जाते हैं वहाँ भी हमारा ध्यान रूप पर ही टिका रहता है । हर आदमी और औरतें मंदिरजी में दर्शन हेतू तो दस मिनट के लिए आते हैं और मंदिरजी की तैयारी में ड्रेसिंग टेबल पर आधा घण्टा, बीस मिनट लगा देते हैं । आखिर ऐसा क्यों ? में तो समझता हूँ कि आज मंदिरों और धार्मिक कार्यक्रमों में जो लोग इतना सजधज कर के आते हैं, वे एक समस्या कि पूर्ति करते हैं । ग्रंथो यह बताया गया है कि इस काल में स्वर्ग से देव नहीं आते, में समझता हूँ इसी समस्या कि पूर्ति के कारण लोग स्वयं अपने आपको देवी देवता बनाकर भगवान के समक्ष प्रस्तुत करते हैं । पर बंधुओं थोड़ा सोचो -
होड देवों से लगाई, मनुज बनना न सीखा ।
विश्व को वामन पगों से मापने कि कामना है ॥
संत कहते हैं कि रूप का नहीं स्वरूप का सत्कार करो । किस रूप पर इतने मुग्ध होते हो ? मक्खी के पंख से भी पतली शरीर कि एक परत को उतारते ही सुंदर सलौना दिखाई पड़ने वाला यह शरीर घृणा कि चीज बन जाएगा । अत शरीर के रूप कि नहीं स्वरूप कि चिंता करो । आचार्य कुन्द कुन्द कहते हैं "जगत में सबसे सुंदर अपना आत्मस्वरूप है । उसका ही सत्कार करो । कवि ने ठीक ही कहा है-
मत रूप निहारो दर्पण में, दर्पण गंदला हो जाएगा ।
निजरूप निहारो अन्तर में, अन्तर उजाला हो जाएग

चार सवाल

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एक बार एक राजा ने अपने मंत्री से कहा, 'मुझे इन चार प्रश्नों के जवाब दो। जो यहां हो वहां नहीं, दूसरा- वहां हो यहां नहीं, तीसरा- जो यहां भी नहीं हो और वहां भी न हो, चौथा- जो यहां भी हो और वहां भी।'

मंत्री ने उत्तर देने के लिए दो दिन का समय मांगा। दो दिनों के बाद वह चार व्यक्तियों को लेकर राज दरबार में हाजिर हुआ और बोला, 'राजन! हमारे धर्मग्रंथों में अच्छे-बुरे कर्मों और उनके फलों के अनुसार स्वर्ग और नरक की अवधारणा प्रस्तुत की गई है। यह पहला व्यक्ति भ्रष्टाचारी है, यह गलत कार्य करके यद्यपि यहां तो सुखी और संपन्न दिखाई देता है, पर इसकी जगह वहां यानी स्वर्ग में नहीं होगी। दूसरा व्यक्ति सद्गृहस्थ है। यह यहां ईमानदारी से रहते हुए कष्ट जरूर भोग रहा है, पर इसकी जगह वहां जरूर होगी। तीसरा व्यक्ति भिखारी है, यह पराश्रित है। यह न तो यहां सुखी है और न वहां सुखी रहेगा। यह चौथा व्यक्ति एक दानवीर सेठ है, जो अपने धन का सदुपयोग करते हुए दूसरों की भलाई भी कर रहा है और सुखी संपन्न है। अपने उदार व्यवहार के कारण यह यहां भी सुखी है और अच्छे कर्म करन से इसका स्थान वहां भी सुरक्षित है।'

अमरता का पात्र

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एक बार धर्मशास्त्रों की शिक्षा देने वाला एक विद्वान ईसा मसीह के पास आया। उसने
ईसा मसीह से पूछा- अमरता की प्राप्ति के
लिए क्या करना होगा? ईसा मसीह बोले- इस
पर धर्मशास्त्र क्या कहते हैं? व्यक्ति बोला- वे
कहते हैं कि हमें ईश्वर को संपूर्ण हृदय से प्रेम
करना चाहिए। अपने पड़ोसी और इष्ट मित्रों को भी ईश्वर से जोड़ देना चाहिए। ईसा ने कहा- बिल्कुल ठीक। तुम इसी पर अमल
करते रहे। विद्वान ने तब जिज्ञासा व्यक्त
की- किंतु मेरा पड़ोसी कौन है? ईसा मसीह
बोले-सुनो, यरूशलम का एक व्यक्ति कहीं दूर
यात्रा पर जा रहा था। रास्ते में उसे कुछ चोर
मिल गए। उन्होंने उसे मारा पीटा और अधमरा करके चले गए। संयोगवश उधर से एक
पादरी आया। उसने उस व्यक्ति को वहां पड़े
देखा पर चला गया। फिर एक छोटा पादरी आया और वह भी उसे
देखकर चलता बना। कुछ देर बाद एक
यात्री वहां से निकला। उसने घायल
की मरहमपट्टी की। उसे कंधे पर उठाकर एक
धर्मशाला पहुंचाया और उसकी सेवा की। दूसरे
दिन जब वह जाने लगा तो धर्मशाला वालों से उस व्यक्ति का समुचित ध्यान रखने और
उसके उपचार का व्यय स्वयं वहन करने की बात
कहकर चला गया। अब कहो इन तीनों में से उस घायल
का सच्चा पड़ोसी कौन हुआ? विद्वान बोला-
वह अपरिचित यात्री जिसने उस पर
दया दिखाई। तब ईसा ने कहा- तो बस तुम
भी ऐसा ही आचरण करो, वैसे ही बनो। सभी के
प्रति प्रेम, दया व सहयोग भाव रखना मानवता की पहचान है और ऐसा करने
वाला सच्चे अर्थों में अमरता का पात्र बनता है।

कठोरता छोड़ो और विनम्रता सीखो

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एक साधु बहुत बूढ़े हो गए थे। उनके जीवन का आखिरी क्षण आ पहुँचा। आखिरी क्षणों में उन्होंने अपने शिष्यों और चेलों को पास बुलाया। जब सब उनके पास आ गए, तब उन्होंने अपना पोपला मुँह पूरा खोल दिया और शिष्यों से बोले-'देखो, मेरे मुँह में कितने दाँत बच गए हैं?' शिष्यों ने उनके मुँह की ओर देखा।
कुछ टटोलते हुए वे लगभग एक स्वर में बोल उठे-'महाराज आपका तो एक भीदाँत शेष नहीं बचा। शायद कई वर्षों से आपका एक भी दाँत नहीं है।' साधु बोले-'देखो, मेरी जीभ तो बची हुई है।'
सबने उत्तर दिया-'हाँ, आपकी जीभ अवश्य बची हुई है।' इस पर सबने कहा-'पर यह हुआ कैसे?' मेरे जन्म के समय जीभ थी और आज मैं यह चोला छोड़ रहा हूँ तो भी यह जीभ बची हुईहै। ये दाँत पीछे पैदा हुए, ये जीभसे पहले कैसे विदा हो गए? इसका क्या कारण है, कभी सोचा?'
शिष्यों ने उत्तर दिया-'हमें मालूम नहीं। महाराज, आप ही बतलाइए।'
उस समय मृदु आवाज में संत ने समझाया- 'यही रहस्य बताने के लिए मैंने तुम सबको इस बेला में बुलाया है। इस जीभ में माधुर्य था, मृदुता थी और खुद भी कोमल थी, इसलिए वह आज भी मेरे पास है परंतु.......मेरे दाँतों में शुरू से ही कठोरता थी, इसलिए वे पीछे आकर भी पहले खत्म हो गए, अपनी कठोरता के कारण ही ये दीर्घजीवी नहीं हो सके।
दीर्घजीवी होना चाहते हो तो कठोरता छोड़ो और विनम्रता सीखो।'

मोह का बंधन !

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ऊंटों का काफिला कहीं जा रहा था, राह में रात हो गई,ऊंटों को जब बांधा 
गया तो एक रस्सी कम निकली. आशंका थी कि ऊंट को बांधा नहीं गया
तो रात कहीं चला न जाये हर उपाय किये पर बात न बनी
तब दूर साधू कि कुटिया दिखी,काफिले का मालिक साधू के पास गया
और समस्या बताई,साधू ने कहा रस्सी तो मेरे पास भी नहीं है पर उपाय
बताता हूँ जैसे सारे ऊटों को बांधा है, वैसे ही आखरी ऊंट को बांध दो
बिना रस्सी के, काफिले का मालिक ने वैसे ही किया, हाथ में रस्सी न थी
पर गले में हाथ घुमा के गांठ बांध दी फिर खूंटे में रस्सी बंधने का
नाटक किया. ऊंट बैठ गया..!
सुबह काफिले को रवाना होना था, सारे ऊंट तैय्यार हो गये पर ये ऊंट
बैठा रहा. हर यत्न किए..काफिले का मालिक साधू के पास पहुंचा और
समस्या बताई..साधू ने पूछा तुमने ऊंट को खोला..काफिले वाला बोला
मैंने उसे बाँधा ही कहाँ है..साधू ने कहा रात जैसे बांधा था वैसे ही खोल
दो,काफिले वाले ने ऊंट को खोलने का नाटक किया.. ऊंट उठ के खड़ा हो
गया..
क्या हम मोह की ऐसी ही डोर से नहीं बंधे हैं...?

बालि वध क्यों ?

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मर्यादा सीखें रामायण से

रामायण में ऐसे कई गूढ़ रहस्य छिपे हैं जो वर्तमान समय में हमें जीने की सही राह दिखाते हैं। रामायण में मर्यादाओं के पालन पर विशेष जोर दिया गया है। रामायण में ऐसे कई प्रसंग आते हैं जहां भगवान श्रीराम ने मर्यादाओं के पालन के लिए त्याग कर आदर्श उदाहरण पेश किया। श्रीराम ने मर्यादा के पालन के लिए 14 साल का वनवास भी सहज रूप से स्वीकार कर लिया। इसीलिए उन्हें मर्यादापुरुषोत्तम कहा गया।

रामायण में ऐसे भी कई प्रसंग आते हैं जहां मर्यादा का पालन न करने पर पराक्रमी व बलशाली को भी मृत्यु का वरण करना पड़ा। जब भगवान राम ने किष्किंधा के राजा बालि का वध किया तो उसने भगवान से प्रश्न पूछा-

मैं बेरी सुग्रीव प्यारा
कारण कवन नाथ मोहि मारा,

प्रति उत्तर में जो बात राम ने कही वह मर्यादा के प्रति समर्पण को दर्शाती है-अनुज वधू, भग्नी, सुत नारी,सुन सठ ऐ कन्या सम चारीअर्थात अनुज की पत्नी, छोटी बहन तथा पुत्र की पत्नी। यह सभी पुत्री के समान होती है। तुमने अपने अनुज सुग्रीव की पत्नी को बलात अपने कब्जे में रखा इसीलिए तुम मृत्युदंड के अधिकारी हो।

ऐसे ही मानवीय संबंधों को मर्यादाओं में बांधा गया है। इस प्रकार मर्यादाएं व्यक्ति के मन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालती है। वर्तमान समय में जहां पाश्चात्य सभ्यता हमारे बीच घर करती जा रही हैं वहीं रामायण एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जो हमें मर्यादाओं की शिक्षा दे रहा है।

अनिष्ट शक्ति क्या होती है ?

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ईश्वरने सृष्टिकी रचनाके साथ ही दो शक्तियों देव और असुरका निर्माण किया जिसमें एक है इष्टकारी शक्ति, कल्याणकारी शक्ति और दूसरा अनिष्ट शक्ति अर्थात विनाशकारी शक्ति | जब किसी दुर्जनकी मृत्यु हो जाए और उसका क्रिया-कर्म वैदिक रीतिसे न हुआ हो, या उसके कर्मानुसार उसे गति न मिले, तो वे भी अनिष्ट शक्तिके गुटमें चले जाते हैं | उसी प्रकार हमारे पूर्वजोंने पापकर्म किए हों, या उनकी कोई इच्छा अतृप्त रह गई हो और हम अतृप्त पितरोंकी सद्गतिके लिए योग्य साधना नहीं करते हों, तो वे भी अनिष्ट शक्तिके गुटमें चले जाते हैं और साधनाके अभावमें बलाढ्य आनिष्ट शक्तियां उन्हें सूक्ष्म जगतमें बंधक बना, उनसे बुरे कर्म करवाती हैं अतः उनसे भी कष्ट होता है |
वर्तमान समयमें धर्माचरणके अभावमें व्यष्टि (वैयक्तिक) एवं समष्टि (सामाजिक) जीवनमें अनिष्ट शक्तिका कष्ट बढ़ गया है और चारों ओर ‘त्राहिमां’ की स्थिति बन गयी है |
अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट किसे हो सकता है ?
सर्वप्रथम तो यह बता दूं कि अनिष्ट शक्तियोंके कष्टसे आज संपूर्ण मानव जाति पीड़ित है |
तीन वर्गोंमें इसका विभाजन कर कारण बताती हूं |
१. जो साधना नहीं करते
२. . जो साधना करते है
३. संत
आज तीनों ही वर्गको कष्ट है, क्यों ?
* जो साधना नहीं करते उनकी स्थिति अतिदयनीय होती है वे पूर्णतः अनिष्ट शक्तियोंके नियंत्रणमें चले जाते हैं |
आजकी अर्ध्नंगी मॉडल, आजके भ्रष्ट नेता , समलैंगिक लोग, बलात्कारी, अहंकारी, आजके अति आधुनिक व्यक्ति एवं पाश्चात्य संस्कृतिके रंगमें रंगे लोग, मद्यपि इत्यादि सबपर अनिष्ट शक्तियोंका सर्वाधिक नियंत्रण होता है, या यूं कहें कि शरीर उनका, मन और बुद्धि अनिष्ट शक्तियों की ! आज समाजके पचास प्रतिशत साधारण लोगोंको अनिष्ट शक्तियोंका तीव्र कष्ट है !
• जो साधना करते हैं, उन्हें वे कष्ट इसलिए देते हैं कि वे भी साधना पथसे हट जाएं और उनके मनमें धर्म अध्यात्म , संत और गुरुके प्रति विकल्प आ जाये जिससे कि उनकी साधना खंडित हो जाये और अनिष्ट शक्तियां उनके ऊपर नियंत्रण कर लें | आज समाजके सत्तर प्रतिशतसे अधिक प्रमाणमें अच्छे साधकोंको कष्ट है |

* संतको कष्ट क्यों होता है ?
संतकी सूक्ष्म देह ईश्वरके निर्गुण स्वरूप अर्थात समाजसे समष्टि स्वरुपसे एकरूप होता है, अतः उन्हें भी कष्ट होता है |
किसीको अनिष्ट शक्तियोंसे संबन्धित कष्ट हैं यह कैसे समझें ?
इस सम्बन्धमें कुछ बातें ध्यान रखें, जो भी सामान्य नहीं हो रहा है और बुरा हो रहा है, वह अनिष्ट शक्तियोंके कारण हो सकता क्योंकि असामान्य और इष्ट करनेकी क्षमता साधारण व्यक्तिमें नहीं होती, वह केवल ईश्वरमें या संतोंमें होती है | उसी प्रकार सामान्य स्तरपर कुछ बुरा हो रहा हो और बुद्धिसे समझमें न आये और शारीरिक, बौद्धिक एवं मानसिक स्तरपर प्रयास करनेपर भी विशेष सफलता न मिले तो समझ लें कि वह अनिष्ट शक्तियोंके कारण हो रहा है, चाहे वह स्वास्थ्यसे संबंधित हो, अपने सगे-संबंधियोंसे संबंधित हो या अर्थोपार्जनसे संबंधित हो |
अनिष्ट शक्तियोंके कारण किस प्रकारके कष्ट हो सकते हैं ?
अवसाद (डिप्रेशन ), आत्महत्याके विचार आना, अत्यधिक क्रोध आना और उस आवेशमें अपना आपा पूर्ण रूपसे खो देना, मनमें सदैव वासनाके विचार आना, नींद न आना, अत्यधिक नींद आना, शरीरके किसी भागमें वेदना होना और औषधिद्वारा उस वेदनाका ठीक न हो पाना, मनका अत्यधिक अशांत रहना, व्यवसायमें सदैव हानि होना, परीक्षाके समय सदैव कुछ न कुछ अडचन आना , घरमें सदैव कलह-क्लेश रहना, लगातार गर्भपात होना, सतत आर्थिक हानि होना, रोगका वंशानुगत होना, व्यसनी होना, सतत अपघात या दुर्घटना होते रहना, नौकरी या जीविकोपार्जनमें सदैव अडचन होना, सामूहिक बलात्कार, समलैंगिकता, भयावह यौन रोग यह सब अनिष्ट शक्तियोंके कारण हो सकते हैं |
अनिष्ट शक्तियोंसे बचाव कैसे करें ?
* भारतीय संस्कृति अनुसार आचरण करें
* पाश्चात्य संस्कृतिका कमसे कम अनुकरण करें
१. अपनी वेशभूषा भारतीय संस्कृतिके अनुसार रखें, ध्यान रखें भारतीय संस्कृति-अनुसार वेशभूषासे हमारा अनिष्ट शक्तियोंसे रक्षण होता है और देवताके तत्त्व भी हमारी ओर आकृष्ट होते हैं | अतः स्त्रियोंको साडी और पृरुषोंको धोती, कुर्ता या कुर्ता-पायजामा धारण करना चाहिए | स्त्रियोंको भूलसे भी पुरुषोंके वस्त्र नहीं धारण करने चाहिए; इससे स्त्रियोंको जनेन्द्रियां संबंधित कष्ट होते हैं |
तिलक या टीका लगाएं इससे भी अनिष्ट शक्तियोंकी काली शक्ति आज्ञा चक्रमें प्रवेश नहीं कर पाती हैं |
१. पुरुषने शिखा और यदि यज्ञोपवीत हो चुका हो तो उसे धारण करें |
२. स्त्रियोंने भूलसे भी मद्य और सिगरेट नहीं पीनी चाहिए, इससे स्त्रीकी योनि अनिष्ट शक्तियोंके लिए पोषक स्थान बन जाती है और उनकेद्वारा उत्पन्न बच्चोंको जन्मसे ही अनिष्ट शक्तियोंके कष्ट होते हैं |
३. जहां तक संभव हो काले वस्त्रका प्रयोग पूर्ण रूपसे टालना चाहिए, इससे भी अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट होता है |
४. बाहरका भोजन विशेष कर डब्बाबंद (tinned) खाद्य सामाग्रीको ग्रहण करना टालना चाहिए, यदि ग्रहण करना ही पडे तो प्रार्थना और नामजप कर ग्रहण चाहिए |
५. सुबह सूर्योदयसे पहले उठना चाहिए सूर्योदयके पश्चात उठनेसे मन एवं बुद्धिपर आवरण निर्माण होता है |
६. किसी भी प्रकारके व्यसनको चखनेसे भी बचना चाहिए |
७. मांसाहारके बजाय शाकाहारकी ओर प्रवृत्त होना चाहिए |
८. प्रतिदिन आठ-दस लोटे जलमें नमक पानी और देसी गायके गौमूत्रका एक चम्मच डाल पहले स्नान करना चाहिए तत्पश्चात सामान्य स्नान करना चाहिए |
९. आजकलके डियो और तेज सुगंधी अनिष्ट शक्तियोंको आकृष्ट करनेकी प्रचंड क्षमता रखते है उन्हें लगाना पूर्णत: टालना चाहिए यदि लगाना ही हो तो पूजामें देवताको अर्पण करनेवाले फूलोंसे बने या नैसर्गिक पदार्थसे बने इत्र लगाना चाहिए |
१०. सिंथेटिक और चमड़ेके वस्त्र पहनना पूर्णत: टालना चाहिए |
११. टीवी और नेटपर बिना विशेष कारण अधिक समय नहीं देना चाहिए वे रज-तमके स्पंदन प्रक्षेपित करते हैं और हमारे मन एवं बुद्धिपर आवरण निर्माण करते हैं |
१२. भुतहा एवं डरावनी (हॉरर) फिल्म्स और धारावाहिक देखना टालना चाहिए, इससे भी घरमें काली शक्ति प्रक्षेपित होती है |
१३. नमक-पानीका नियमित उपाय करना चाहिए, जिन्हें कष्ट हो उन्हें दो बार अवश्य ही करना चाहिए | नमक-पानीका उपाय नियमित करनेसे मन एवं बुद्धिपर छाया काला आवरण नष्ट हो जाता है और मन एकाग्र और शांत रहनेमें सहायता मिलती है |
१४. सात्त्विक और पारंपरिक अलंकार धारण करने चाहिए |
१५. सोते समय पूर्ण अंधेरा कर नहीं सोना चाहिए संभव हो तो घीका या तेलका दिया जलाकर सोना चाहिए अन्यथा पीले रंग या सफ़ेद रंगके नाइट बल्ब जलाकर सोना चाहिए |
१६. नामजप अधिकसे अधिक प्रमाणमें करना चाहिए |
१७. पितरोंके चित्र घरमें रखना टालना चाहिए | किसी संतकी कृपा पानेका प्रयास करने हेतु उनके बताए अनुसार साधना करना चाहिए |
१८. गंगा, जमुना नर्मदा, कावेरी जैसे पवित्र नदियोंमें, या समुद्र स्नानका यदि संधि मिले तो अवश्य ही करना चाहिए, इससे ही अनिष्ट शक्तियोंके कष्ट कम हो जाते हैं |
१९. घरका वातावरणको शुद्ध करनेका नियमित प्रयास करना चाहिए; अतः घरमें वास्तु शुद्धिके सारे उपाय नियमित करें |
२०. यदि संभव हो तो घरमें देसी गाय अपने प्रांगणमें रखें |
२१. अपने धनका त्याग धर्म-कार्य हेतु नियमित करना चाहिए |
२२. ग्रन्थोंका वाचन करें और उसे जीवनमें उतारनेका प्रयास करें |
२६. घर एवं बाहर स्वभाषामें संभाषण करें | संस्कृत देव वाणी है; अतः इसे स्वयं भी सीखें और अपने बच्चोंको भी अवश्य सिखायें | संस्कृत पढनेसे तेजस्विता बढती है
२७. नियमित योगासन एवं प्राणायाम करें | इससे हमारे शरीरमें एकत्रित काली शक्ति नष्ट होती है और स्थूल देह एवं मनोदेह (मन) की ३०% तक शुद्धि होती है, जिससे हम शारीरिक रूपसे स्वस्थ रह सकते हैं |
२८. फिल्मी गाने और विशेषकर पाश्चात्य संगीतको अधिक समय सुननेसे बचें | इससे भी हमारे शरीरमें काली शक्ति प्रवेश करती है |
२९. स्त्रियोंको अपने केश लंबे रखने चाहिए और नाखून नहीं बढ़ाने चाहिए | स्त्रियोंको अपने केश खुले नहीं छोडने चाहिए |
३०. सोनेसे पूर्व पंद्रह मिनट नामजप कर, उपास्य देवतासे कवच मांगकर सोना चाहिए | इससे रात्रिमें होने वाले अनिष्ट शक्तिके आक्रमणसे बच सकते हैं |
३१. अपने स्वभाव दोषको दूर करनेके लिए प्रतिदिन अपनी चूक एक अभ्यास पुस्तिकामें लिखनी चाहिए और उस प्रकारकी चूक पुनः न हो, यह प्रयास करना चाहिए |
३२. अनावश्यक बातें करना, अपशब्द बोलना इत्यादि पूर्णत: टालना चाहिए |

Problems caused by negative energies and its spiritual remedies
WHAT IS NEGATIVE ENERGY?
Since the time the universe was created, the Almighty created two energies, Dev (Deities) and Asur (Demons). One is a benevolent force meant for human welfare, while the other is a negative, destructive force. When an evil person dies and his last rites are not performed according to Vedic rituals; or the soul is not able to gain momentum due to bad deeds; or some of his/her desires remain unfulfilled; and if one does not follow spiritual practices for the liberation of such unsatiated ancestors, such embodied souls too join the group of negative forces. In the absence of spiritual strength, mantriks(negative energies) much more powerful than them turn such embodied souls captive in the subtle world and force them to do evil deeds. Thus, they are troubled for a long time.
Today, in the absence of people abiding by the Vedic Dharma’s code of conduct, the problems caused by negative energies in one’s personal and social life have increased manifold, leading to a Trahimam (have mercy on us!) like situation
Who all can suffer from troubles by negative energies ?
First of all, let me tell you that today entire human race is suffering from the problems afflicted by evil forces. Let’s see it by making a three-fold classification:
1. Those who do not do spiritual practice.
2. The seekers who do some kind of spiritual practice;
3. Saints.

Today, why are all the three categories suffering ? The condition of those who do not do spiritual practice is the most pitiable, they are entirely under the control of negative energies .
Today’s semi-clad models, corrupt leaders, homosexual people, rapists, killers, egoistic persons, the Hindus who follow the western culture blindly, drunkards – all these people are the ones who are most controlled by negative energies, or to put it in other words, the physical bodies are theirs and the mind and intellect are of negative energies.
In contemporary society, more than 30% of the people are suffering from normal to severe impact of negative energies. These forces trouble those who do spiritual practice, so that such people are deflected from the path of practice and their mind may have negative thoughts about dharma, spirituality, saints and Gurus, so that their practice can be disturbed and the evil forces may take control of such people. In today’s society, more than 50% of good seekers are troubled by negative energies.
Why do saints experience problems?
The subtle body of the saints becomes one with the unmanifest form of God, implying that their subtle bodies are in unison with the society . Thus, they too face problems.
How to realise that one faces problems due to negative energies ?
In this connection, a few points should be taken into consideration– if something is happening that is abnormal and is bad, it is due to negative energies because common people do not possess the ability to transform the normal things into abnormal . If good things are happening and it’s beyond the mind and intellect to analyse them then it is due to saints or some positive energies as they only possess this kind of capability. Similarly, if something bad is happening, and if the intellect cannot comprehend it and despite making physical, intellectual and mental efforts, no special success is being achieved, it must be understood that it is due to negative energies, be it health-related, connected to relationships, or income-related.
What are the problems that can be inflicted due to negative energies ?
Depression, suicidal thoughts, excessive anger and in such a rage loss of self-control, lust-filled thoughts occupying the mind all the time, sleeplessness, excessive sleep, pain in any part of the body and such a pain not being curable through any medicine, extremely restless mind, perennial losses in business/profession, obstacles during examinations, family discord at all times, regular miscarriages, incurring heavy financial losses without any reason, genetic diseases/disorders, being addictive, accidents at frequent intervals and obstacles in job, or means of livelihood. Gang-rapes, homosexuality, dreaded sexual diseases, all these are caused due to the people who are possessed by negative energies.
How to safeguard ourselves from negative energies ?
Follow righteous conduct according to the vedic culture and avoid imitating the western culture for the sake of becoming ‘modern’.
1. Dress up according to Indian culture, remember that dresses pertaining to Bhartiya sanskruti and hindu dharma provide us protection against evil forces and divine attributes are attracted towards us. Hence, women should wear ‘saris’ and men should wear Dhoti, kurta, or kurta-pyjama. Women should not wear male attire. This results in women experiencing problems pertaining to the reproductive organs.
2. Apply a Tilak on the forehead. This too prevents negative energies from entering our Adnya chakra (the midpoint between the two eyebrows).
3. Males should sport a Shikha and if the sacred thread ceremony has been done, then wear a sacred thread too.
4. Ladies should not, even by mistake, either drink or smoke. The reproductive organs of such ladies become easily prone to attack by evil forces and children born from such ladies suffer from spiritual problems caused by evil forces since birth.
5. As far as possible, avoid wearing black-coloured clothes. This too causes problems from evil forces.
6. Avoid eating cooked food from outside, particularly tinned and canned and hotel food. If consuming food is a necessity, it must be eaten after making a prayer and Naam Jaap (name chanting).
7. Avoid staying awake after 11 pm.
8. Stay away from tasting any sort of things that can lead to addictions.
9. Instead of non-vegetarianism, turn to vegetarianism.
10. Take a bath with salt water and a spoonful of cow’s urine, followed immediately after by a normal bath.

11. Avoid deodorants and pungent smells as these have an intense ability to attract evil forces.
12. Avoid wearing synthetic and leather clothes.
13. Do not devote more time than is necessary to television and internet. Such equipments project raj-tam and negative vibrations.
14. Avoid watching horror films and serials.
15. The regular use of salt-water treatment destroys the black veil on the mind and intellect and it helps in concentration and keeping the mind peaceful.
16. Pure and traditional ornaments pertaining to Hindu sanskruti must be worn.
17. While sleeping, the room should not be totally dark.
18. Do Naam Jaap(chanting) as much as possible.
19. Avoid keeping photographs of ancestors in the house.
20. Make efforts to receive the grace of saints and do practice, as recommended by them.
21. A bath, equivalent to a dip in the Ganga or taking a bath in the sea, must be taken at home. This also reduces the troubles given by evil forces.
22. Efforts must be made regularly to purify the atmosphere of the house. Hence, all measures for Vaastu Shuddhi (purification of house architecture) must be done on a regular basis.
23. If possible, keep a Desi (Indian breed) cow in the courtyard.
24. Offer a part of your earning towards Dharma related work.
25. Read scriptures and try to implement them in your life.
26. Converse in your own language inside and outside the house. Sanskrut is known as Devbhasha (language of the Gods). Hence try to learn it yourself and also teach it to the children.
27. Practice Yogasana (yogic postures) and Pranayam regularly. This destroys the black energy accumulated in our body; and the physical form and Manodeh (mind) is purified to some extent. This keeps us physically healthy.
28. Avoid listening to film songs and especially western music for long duration. Due to this, black energy enters our body.
29. Women should keep long hair and not grow nails. Women should not leave their hair untied.
30. Do chanting 15 minutes before sleeping and seek a protective armour from the worshipped deity before sleeping.
31. To remove your faults, note down your mistakes in a diary on a daily basis and make efforts to ensure that the same type of mistake is not repeated.
32. Completely avoid unnecessary talking, abusing etc
 

आज मंगलवार है

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आज मंगलवार है महावीर का वार है यह सच्चा दरबार है I
सच्चे मन से जो कोई ध्यावे उसका बेडा पार है II
चैत्र सुदी पूरण मंगल को जन्म वीर ने पाया है I
लाल लंगोटा गदा हाथ में सर पर मुक्त सजाया है II
शंकर का अवतार है, महावीर का वार है
ब्रह्मा जी से ब्रह्म ज्ञान का बल भी तुमने पाया है I
राम काज शिवशंकर ने वानर का रूप धराया है II
लीलI अपरम्पार है, महावीर का वार है
बालपन में महावीर ने हरदम ध्यान लगाया है I
श्राप दिया ऋषियों ने तुमको बल का ध्यान भुलाया है II
राम नाम आधार है महावीर का वार है
राम जन्म जब हुआ अयोध्या में कैसा नाच नचाया है I
कहा राम ने लक्ष्मण से यह वानर मन को भाया है II
राम लक्ष्मण से प्यार है, महावीर का वार है
पंचवटी से सीता को रावण जब लेकर आया है I
लंका में जाकर तुमने माता का पता लगाया है II
अक्षय को दिया मार है, महावीर का वार है
मेघनाद ने ब्रह्म पाश तुमको आन फंसाया है I
ब्रह्पाश में फँस करके ब्रह्मा का मान बढाया है II
बजरंगी की बाँकी मार है , महावीर का वार है
लंका जलाई आपने रावण भी घबराया है I
श्री राम लखन को आन करके सीता सन्देश सुनाया है II
सीता शोक आपर है, महावीर का वार है
शक्ति बाण लग्यो लक्ष्मण के बूटी लेने धाये हैं I
लाकर बूटी लक्ष्मण जी के प्राण बचाये हैं II
राम लखन का प्यार है, महावीर का वार है
राम चरण में महावीर ने हरदम ध्यान लगाया है I
राम तिलक में महावीर ने सीना फाड़ दिखाया है II
सीने में राम दरबार है, महावीर का वार है
आज    मंगलवार  है  महावीर  का  वार  है यह  सच्चा दरबार है   I
सच्चे मन से जो कोई ध्यावे उसका बेडा पार है II
चैत्र सुदी पूरण मंगल को जन्म वीर ने पाया है I
लाल लंगोटा गदा हाथ में सर पर मुक्त सजाया है II
शंकर का अवतार है, महावीर का वार है 
ब्रह्मा  जी से ब्रह्म ज्ञान का बल भी तुमने पाया है I
राम काज शिवशंकर ने वानर का रूप धराया है II
लीलI अपरम्पार है, महावीर का वार है  
बालपन में महावीर ने हरदम ध्यान लगाया है I
श्राप दिया ऋषियों ने तुमको बल का ध्यान भुलाया है II
राम नाम आधार है महावीर का वार है 
राम जन्म जब हुआ अयोध्या में कैसा नाच नचाया है I
कहा   राम ने लक्ष्मण   से  यह वानर मन को भाया है  II
राम लक्ष्मण से प्यार है,  महावीर का वार है 
पंचवटी से सीता को रावण जब लेकर आया है I
लंका में जाकर तुमने माता का पता लगाया है II
अक्षय को दिया मार है,  महावीर का वार है
मेघनाद ने ब्रह्म पाश तुमको आन फंसाया है I
ब्रह्पाश में फँस करके ब्रह्मा का मान बढाया है II
बजरंगी की बाँकी मार है , महावीर का वार है 
लंका जलाई आपने रावण भी घबराया है I
श्री राम लखन को आन करके सीता सन्देश सुनाया है II
सीता शोक आपर है,  महावीर का वार है 
शक्ति बाण लग्यो लक्ष्मण के बूटी लेने धाये  हैं I
लाकर बूटी लक्ष्मण जी के प्राण बचाये हैं II
राम लखन का प्यार है,  महावीर का वार है 
राम चरण में महावीर ने हरदम ध्यान लगाया है I
राम तिलक  में महावीर ने सीना फाड़ दिखाया है  II
सीने  में  राम दरबार  है,  महावीर का वार है

नग्न साधू

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मित्रों कृपया इस लेख को साझा करें और नग्न रहकर साधना करने वाले साधू समाज के प्रति फैली गलतधारणा को दूर कर धर्म के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करें !
कुछ व्यक्ति ने महाकुंभ में विचरते नग्न साधू पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पूछा है कि जहां माँ बहनें आती हैं वहाँ साधुओं का नग्न होकर घूमना कहाँ तक उचित है क्या यह भारतीय संस्कृति है ?
उत्तर : पाश्चात्य देशों में कई बार कुछ जन अपने विषय की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए नग्न होकर प्रदर्शन करते हैं !! वहाँ नग्न होकर प्रदर्शन करने का उद्देश्य होता कि सभी का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करना ! महाकुम्भ्में योगी और महात्मा नग्न होकर विचरते हैं वहाँ वे यह सब किसी का ध्यान आकृष्ट करने के लिए नहीं करते अपितु यह उनकी साधना का भाग होता है |
ध्यान रहे हम सब की उत्पत्ति ईश्वर से हुई परंतु हमें वह बोध अखंड नहीं होता क्योंकि हमारे अंदर देह बुद्धि होती है अर्थात मैं ब्रह्म हूँ के स्थान पर मैं देह हूँ और मैं फलां फलां हूँ यह विचार अधिक प्रबल होता है | जब तक मैं देह हूँ यह विचार प्रबल रहता है ईश्वर की प्रचीति नहीं हो सकती !
नग्न दो प्रकार के योगी रहते हैं – एक जो परमहंस के स्तरके संत होते हैं, उनसे स्वतः ही वस्त्र का त्याग हो जाता है क्योंकि उनकी देह बुद्धि समाप्त हो जाती हैं | ऐसे उच्च कोटी के योगी इस संसार में विरले ही हैं | दूसरे प्रकार के नग्न योगी हठयोगी होते है वे अंबर को अपना वस्त्र मानते हैं और वे अपने मन के विरुद्ध जाकर सर्व वस्त्र एवं सर्व बंधन त्याग कर साधनारत होते हैं | उनमें से कुछ शैव उपासक होते हैं तो कुछ अन्य पंथ अनुसार दिगंबर साधू होते हैं ! जो शैव साधू होते हैं वे शिव से एकरूप होने हेतु जो शिव को प्रिय है वे उनका उपयोग करते हैं|
इस कड़ाके की सर्द में एक दिवस नहीं अपितु दो या ढाई महीने नग्न रहना खिलवाड़ नहीं, अपितु उनकी साधना का परिचय देती हैं !
देह बुद्धि रहते हुए वस्त्रका त्याग, लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने हेतु नहीं अपितु साधना हेतु करने वाले के प्रति, हीन भावना नहीं आदर की भावना होनी चाहिए | कुम्भ में नग्न साधुओं की विशाल सेना इस बात का द्योतक है कि आज जब कलियुग अपने चरम पर है तब भी ये हठयोगी अपनी संस्कृति, साधू परंपरा और और अपने योगमार्ग को बनाए रखें हेतु प्रयत्नशील हैं | ऐसे श्रेष्ठ परंपरा का पोषण करने वाली इस दैवी, सनातन, वैदिक परंपरा के प्रति हमें गर्व होना चाहिए न की लज्जा ! और इन हठयोगी नग्न साधू परंपरा ने समय-समय पर सनातन संस्कृति का शस्त्र और शास्त्र दोनों के माध्यम से रक्षण किए हैं अतः इन धर्मरक्षक सात्त्विक सैनिकों के प्रति प्रत्येक हिन्दू को गर्व होना चाहिये !
मित्रों कृपया इस लेख को साझा करें और नग्न रहकर साधना करने वाले साधू समाज के प्रति फैली गलतधारणा को दूर कर धर्म के प्रति अपने कर्तव्य का  निर्वाह करें  ! 
कुछ व्यक्ति ने महाकुंभ में विचरते नग्न साधू पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पूछा है कि जहां माँ बहनें आती हैं वहाँ साधुओं का नग्न होकर घूमना कहाँ तक उचित है क्या यह भारतीय संस्कृति है ? 
 उत्तर : पाश्चात्य देशों में कई बार कुछ जन अपने विषय की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए नग्न होकर प्रदर्शन करते हैं !! वहाँ नग्न होकर प्रदर्शन करने का उद्देश्य होता कि सभी का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करना ! महाकुम्भ्में योगी और महात्मा नग्न होकर विचरते हैं वहाँ वे यह सब किसी का ध्यान आकृष्ट करने के लिए नहीं करते अपितु यह उनकी साधना का भाग होता है | 
  ध्यान रहे हम सब की उत्पत्ति ईश्वर से  हुई परंतु हमें वह बोध अखंड नहीं होता क्योंकि हमारे अंदर देह बुद्धि होती है अर्थात मैं ब्रह्म हूँ के स्थान पर मैं देह हूँ और मैं फलां फलां हूँ यह विचार अधिक प्रबल होता है  | जब तक मैं देह हूँ  यह विचार प्रबल रहता है ईश्वर की प्रचीति नहीं हो सकती !
    नग्न दो प्रकार के योगी रहते हैं – एक जो परमहंस के स्तरके संत होते  हैं, उनसे स्वतः ही वस्त्र का त्याग हो जाता है क्योंकि उनकी देह बुद्धि समाप्त हो जाती हैं | ऐसे उच्च कोटी के योगी इस संसार में विरले ही हैं |  दूसरे प्रकार के नग्न योगी हठयोगी होते है वे अंबर को अपना वस्त्र मानते हैं और वे अपने मन के विरुद्ध जाकर   सर्व वस्त्र एवं सर्व बंधन त्याग कर साधनारत होते हैं | उनमें से कुछ शैव उपासक  होते हैं तो कुछ अन्य  पंथ अनुसार दिगंबर साधू होते हैं ! जो शैव साधू होते हैं वे शिव से एकरूप होने हेतु जो  शिव को प्रिय है वे उनका उपयोग करते हैं|    
    इस कड़ाके की सर्द में एक दिवस नहीं अपितु दो या ढाई महीने नग्न रहना खिलवाड़ नहीं, अपितु  उनकी साधना का परिचय देती हैं !  
   देह बुद्धि रहते हुए वस्त्रका त्याग, लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने हेतु नहीं अपितु साधना हेतु  करने वाले के प्रति, हीन भावना नहीं आदर की भावना होनी चाहिए | कुम्भ में नग्न साधुओं की विशाल सेना इस बात का द्योतक है कि आज जब कलियुग अपने चरम पर है तब भी ये हठयोगी अपनी संस्कृति, साधू परंपरा और और अपने योगमार्ग को बनाए रखें हेतु प्रयत्नशील हैं | ऐसे श्रेष्ठ परंपरा का पोषण करने वाली इस दैवी, सनातन, वैदिक परंपरा के प्रति हमें गर्व होना चाहिए न की लज्जा ! और इन हठयोगी नग्न साधू परंपरा ने समय-समय पर सनातन संस्कृति का शस्त्र और शास्त्र दोनों के माध्यम से रक्षण किए हैं अतः इन धर्मरक्षक सात्त्विक सैनिकों के प्रति प्रत्येक हिन्दू को गर्व होना चाहिये  !

गुरु-शिष्य की कथा

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श्रीगुरु चरित्र में एक गुरु-शिष्य की कथा है | एक शिष्य को काशी विशेश्वर के मंदिर के बाहर बैठे एक कुष्ट रोगी में शिव के दर्शन हुए और वह उनकी सेवा करने लगा | उनकी घाव में प्रेमसे लेप लगाता , पट्टी करता तब गुरु उन्हें लातसे मारते और कहते तुम्हें मेरे घाव से घृणा होती है, जब उनके लिए भिक्षा मांगकर लाता और सड़े गले भोजन मार्ग में ही ग्रहण कर गुरुके लिए अच्छा भोजन लाता तो गुरु लांछन लगाते कि भिक्षा में जो अच्छा -अच्छा चीज मिलता है वह मार्ग में चोरी चोरी खा लेते हो और मेरे लिए सडी गली चीज लाकर देते हो ! इस प्रकार शिष्य गुरु की सेवा सारे लांछन सहकर आनंदपूर्वक करता रहा और एक दिवस उन्हें वह सब कुछ मिल गया जो उस शिष्य को चाहिए था क्योंकि उनके कुष्ट रोगी गुरु और कोई नहीं साक्षात शिव ही थे |
सीख : जब शिष्य प्रेम से सेवा करे सद्गुरु उन्हें डांटे और लांछन लगाए और तब भी शिष्य सेवा करता रहता है तो उसे ही खरी गुरुसेवा कहते हैं और यह सब सद्गुरु शिष्य के मनोलय और अहं नष्ट करने के लिए करते हैं , जब कोई जीव पर मान-अपमान दोनों का प्रभाव नहीं पड़ता और उसकी सेवा में सातत्य बना रहता है तब शिष्य को सद्गुरु स्थितप्रज्ञता का वरदान दे देते हैं जिसे साध्य करने में योगियों को लाखों वर्ष लग जाते हैं वह सद्गुरुकी कुछ वर्षों की सेवा से प्राप्य हो जाता है तभी तो सद्गुरु को परब्रह्म की उपमा दी गयी है !
श्रीगुरु चरित्र में एक गुरु-शिष्य की कथा है | एक शिष्य को काशी विशेश्वर के मंदिर के बाहर बैठे  एक कुष्ट रोगी में शिव के दर्शन हुए और वह उनकी सेवा करने लगा | उनकी घाव में प्रेमसे लेप लगाता , पट्टी करता  तब गुरु उन्हें लातसे  मारते और कहते तुम्हें मेरे घाव से घृणा होती है, जब  उनके लिए भिक्षा मांगकर लाता और सड़े गले भोजन मार्ग में ही ग्रहण कर गुरुके लिए अच्छा भोजन लाता तो गुरु लांछन लगाते कि भिक्षा में जो अच्छा -अच्छा चीज मिलता है वह मार्ग में चोरी चोरी  खा लेते हो और मेरे लिए सडी गली चीज लाकर देते हो ! इस प्रकार शिष्य गुरु की सेवा सारे लांछन सहकर आनंदपूर्वक करता रहा और एक दिवस उन्हें वह सब कुछ मिल गया जो उस शिष्य को  चाहिए था  क्योंकि उनके कुष्ट रोगी गुरु और कोई नहीं साक्षात शिव ही थे | 
सीख : जब शिष्य  प्रेम से सेवा करे  सद्गुरु उन्हें डांटे और लांछन लगाए और तब भी शिष्य सेवा करता रहता है तो उसे ही खरी गुरुसेवा कहते हैं और यह सब सद्गुरु शिष्य के मनोलय और अहं नष्ट करने के लिए करते हैं , जब कोई जीव पर मान-अपमान दोनों का प्रभाव नहीं पड़ता और उसकी सेवा में सातत्य बना रहता है तब शिष्य को सद्गुरु स्थितप्रज्ञता का वरदान दे देते हैं जिसे  साध्य करने में योगियों को लाखों वर्ष लग जाते हैं वह सद्गुरुकी कुछ वर्षों की सेवा से प्राप्य हो जाता है तभी तो सद्गुरु को परब्रह्म की उपमा दी गयी है !

मां बाप होने के नाते.

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1.माँ-बाप होने के नाते अपने बच्चों को खूब पढाना-लिखाना और पढा लिखा कर खूब लायक बनाना । मगर इतना लायक भी मत बना देना कि वह कल तुम्हें ही ‘नालायक’ समझने लगे । अगर तुमने आज यह भूल की तो कल बुढापे में तुम्हें बहुत रोना पछताना पडेगा । यह बात मैं इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि कुछ लोग जिंदगी में यह भूल कर चुके है और वे आज रो रहे है । अब पछताने से क्या होगा जब चिड़िया चुग गई खेत ।

2.बच्चों के झगडे में बडों को और सास बहू के झगडों में बाप बेटे को कभी नहीं पडना चाहिये । संभव है कि दिन में सास बहू में कुछ कहा सुनी हो तो स्वाभाविक है कि वे इसकी शिकायत रात घर लौटे अपने पति से करेगी । पतियों को उनकी शिकायत गौर से सुननी चाहिये, सहानुभूति भी दिखानी चाहिये । मगर जब सोकर उठे तो आगे पाठ-पीछे सपाट की नीति ही अपनानी चाहिये, तभी घर में एकता कायम रह सकती है ।

सात प्रकार के विवाह

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" ब्रह्मविवाह" " आर्षविवाह" " प्रजापत्य-विवाह" " असुर-विवाह" " गान्धर्व-विवाह" " पैशाच-विवाह " " राक्षस-विवाह" !
विवाह का वर्णन करते हुये ईश्वर कहते हैं----अपने समान गोत्र तथा समान प्रवर में उत्पन्न हुई कन्या का वंरण न करे! पिता से ऊपर की सात पीढ़ियों के साथ तथा माता से मंच पीढ़ियों के बाद की ही परम्परा में उसका जन्म होना चाहिये! उत्तम कुल तथा अच्छे स्वभाव के सदाचारी वर को घर पर बुला कर उसे कन्या का दान देना 
" ब्रह्मविवाह" कहलाता है! वर के साथ एक गाय और एक बैल लेकर जो कन्यादान किया जाता है, उसे " आर्षविवाह" कहते हैं! जब किसी के मांगने पर उसे कन्या दी जाती है तो वह " प्रजापत्य-विवाह" कहलाता है! कीमत लेकर कन्या का देना " असुर-विवाह" है! [ इसे नीच श्रेणी का विवाह कहा गया है] वर और कन्या जब स्वेच्छापूर्वक एक-दूसरे को स्वीकार करते हैं तो उसे " गान्धर्व-विवाह" कहलाता है तथा कन्या को धोखा देकर उड़ा लेना " पैशाच-विवाह " माना है! युद्ध के द्वारा कन्या के हर लेने से " राक्षस-विवाह" कहलाता है! 
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भगवान् हयग्रीव जी [विष्णु] कहते हैं---"ॐ ॐ हूं फट विष्णवे स्वाहा!" इस प्रकार मन्त्र-जप करके सो जाने पर यदि अच्छा स्वप्न हो तो सब शुभ होता है और यदि बुरा स्वप्न हुआ तो नरसिंह मन्त्र से हवन करनेपर शुभ होता है!

तुम कौन हो

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जब तुम पैदा हुए तो जो पहला कपडा तुम्हे पहनाया गया वो तुम्हारा नहीं था.जब तुम स्कूल गए तो वो फीस,वो किताब पेंसिल तुम्हारी नहीं थी, जब तुम और बड़े हुए तो जो घर,गाडी तुमने ली वो भी तुमने पैदा नहीं की थी. जब तुम मर जाते हो तो जिन लकड़ियों में तुम्हे जलाया जाता है वो भी तुमने पैदा नहीं की होती........
तो फिर ये मेरा-मेरा क्या है ????
इस पर सोचो....
एसा क्या है जो यहाँ तुमने पैदा किया हो?
एसा क्या है जो तुमने यहाँ नष्ट किया हो?
सिर्फ ये जानने की कोशिश करो की तुम कौन हो और यहाँ क्यूँ

Feetured Post

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