11 September 2011

खुली रखिए बातचीत की खिड़कियाँ



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वि‍नती गुप्ता

दोनों सास-बहू का प्रेम लोगों के लिए मिसाल हुआ करता था। सास पीछे बैठती व बहू स्कूटर चलाती। सास के चेहरे पर एक आत्मसंतुष्टि का भाव या यूँ कहिए कि इस बात का घमंड था कि उसकी बहू कितनी अच्छी है। जहाँ आज के समय सास-बहू साथ नहीं रहती हैं वहाँ उन दोनों के बीच इतना अच्छा सामंजस्य सचमुच ईर्ष्या की बात थी। 

दोनों से अकेले में भी मिलने पर एक-दूसरे की प्रशंसा करते नहीं थकती थीं। चाहे कोई कितना ही उनके मन को टटोले एक-दूसरे की बुराई का एक शब्द नहीं सुन पाता था। परंतु कुछ दिनों से दोनों की एक-दूसरे से बोलचाल बंद है। अब दोनों एक-दूसरे की बुराई करने को आतुर है। घर स्वर्ग से नर्क बन गया है। 

पता नहीं ऐसा क्या हुआ कि दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़तीं। बहुत कुरेदने पर बहू ने बताया कि इस अनबन की शुरुआत तब से हुई जब सास की एक सहेली ने बताया कि तुम्हारी सास मुझसे कह रही थी कि जबसे बहू आई है सुबह के समय उनकी दिनचर्या में परिवर्तन आ गया है। 

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पोते के स्कूल जाने की वजह से अब वह सबेरे न तो घूमने जा पाती हैं न ही मंदिर। खाना-पीना भी बहू की पसंद का बनता है और भी न जाने क्या-क्या। बस यही सब सुनकर उसका मन कसैला हो गया। सोचा सास, सास ही होती है। 

ऐसा ही कुछ सास के साथ भी हुआ बहू उनके बारे में क्या कहती है, कोई उल्टी-सीधी कह गया और दोनों के बीच बातचीत बंद हो गई। अब स्थिति यह है कि दोनों को एक-दूसरे के किए में खोट नजर आती है। 

ऐसा ही एक वाकया मेरे साथ भी हुआ। मेरी ऑफिस की एक सहकर्मी, जो एक साल पहले नियुक्त हुई थी, हमेशा जब भी मिलती मुस्करा कर अभिवादन अवश्य करती। काम की व्यस्तता के बीच भी वह नमस्ते तो कर ही लेती। परन्तु पिछले कुछ दिनों से वह मुझे नजरंदाज करने लगी। 

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पहले मैंने अपने मन को समझाया कि ऐसा कुछ नहीं है, मैं अत्यधिक संवेदनशील हूँ शायद ऐसा मुझे इसीलिए लगा होगा। किन्तु जब यही क्रम 15-20 दिनों तक जारी रहा तो मेरा मन नहीं माना। मैंने उसे बुलाकर पूछा। पहले तो वह आई नहीं, जब आई तो आवेश में थी। वह भरी हुई थी। उसने मुझे जो बताया वह सुनकर मैं दंग रह गई। उसने कहा- एक अन्य सहकर्मी जो कुछ दिनों पहले ही ट्रांसफर होकर आई थीं, उन्होंने उसे बताया कि मैंने उसके बारे में कुछ बुराई की है और वह बातें जो मैंने कही ही नहीं है वह उसने मुझे बताई। मैं भी आवेश में आ गई। 

मैंने उससे कहा-"चलो, अभी आमने-सामने कर देते हैं। मैंने ऐसा कब कहा? जिससे मैं बात कम ही करती हूँ उससे मैं क्यों कुछ कहूँगी!" यह बात उसे भी समझ आ गई। मैंने कुछ नहीं कहा। परन्तु साथ ही उसे यह समझाया कि यदि किसी ने कुछ कहा तो मुझसे पूछती तो सही कि क्या यह सच है। यूँ हम गलतफहमी का शिकार तो नहीं होते। बातचीत बंद करना किसी समस्या का समाधान तो नहीं। 

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ऊपर जो कुछ उदाहरण थे उनमें भी यही हुआ। किसी ने कुछ कह दिया, हमने उसे मान लिया। हमने उस बात की तह तक जाने की कोशिश नहीं की। न ही हमने अपने अंतरंग मित्र से उस बात को कहा जिससे हमने बातचीत बंद की। जिसने भी हमारे रिश्ते में सेंध लगाई, उसने साथ में यह भी अवश्य कहा होगा कि तुम उससे यह बात मत कहना, बेकार में झगड़ा होगा। परंतु यह क्या हुआ? 

झगड़े में कुछ तो साफ होता। यहाँ तो सब कुछ अंदर ही रह गया और बढ़ती गई गलतफहमी की दीवार। दुश्मनों की चाल कामयाब हो गई। वे उनके सगे हो गए और आप दुश्मन! अब जब हमने बातचीत ही बंद कर दी है तो सुलह कैसे हो सकती है? 

कहने का तात्पर्य यही है कि आपके अपनों से कभी भी किसी भी परिस्थिति में बोलना बंद मत कीजिए। क्योंकि जब अबोला लंबा खिंच जाता है, तो रिश्ते रेत की तरह मुट्ठी से फिसल जाते हैं। समय निकल जाता है, हाथ में कुछ नहीं रहता है। सिर्फ रह जाता है दर्द का अहसास। इस दर्द को सहने से तो बेहतर है कि किसी से कोई असहमति या मन में कोई बात होने पर खुलकर बात कर ली जाए ताकि आपके रिश्तों में मिठास बनी रहे।

वास्तु से जुड़ी हैं घर की खुशियां


आपको लगता है कि आपसे कोई ईर्ष्या करता है। आपके कई दुश्मन हो गए हैं। हमेशा असुरक्षा व भय के माहौल में जी रहे हैं। तो मकान की दक्षिण दिशा में अगर कोई जल का स्थान हो, तो उसे वहां से हटा दें। 

इसके साथ ही एक लाल रंग की मोमबत्ती आग्नेय कोण में तथा एक लाल व पीली मोमबत्ती दक्षिण दिशा में नित्य प्रति जलाना शुरू कर दें।

यदि आपके घर में जवान बेटी है तथा उसकी शादी नहीं हो पा रही है, तो एक उपाय करें। कन्या के पलंग पर पीले रंग की चादर बिछाएं और उस पलंग पर कन्या को सोने के लिए कहें। इसके साथ ही बेडरूम की दीवारों पर हल्का रंग करें। ध्यान रहे कि कन्या का शयन कक्ष वायव्य कोण में स्थित होना चाहिए। 

यदि आपके घर में आपका बेटा या बेटी पढ़ने-लिखने में कमजोर है तो उसे सलाह दें कि वह ईशान कोण की ओर मुख करके अध्ययन करें। पढ़ने के लिए बैठने से पूर्व वह कक्ष में दक्षिण दिशा में एक मोमबत्ती जलाएं, जो लाल रंग की हो। रोजाना स्टडी रूम में ऐसा प्रयोग करने से बच्चों की एकाग्रता बढ़ती है। 

यदि आपके घर में तनाव रहता है तथा आप हर समय किसी न किसी प्रकार की चिंता में घुले रहते हैं तो मानसिक शांति के लिए ड्राइंग रूम में हल्के नीले रंग के सोफासेट का प्रयोग करें। दीवारों पर भी हल्के रंग की शेड करवाएं। फर्क पड़ेगा।

किस्मत चमकाए, फेंगशुई के उपाय फेंगशुई से संवारें अपना भाग्य



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यदि आपके घर-परिवार में खुशहाली नहीं है तथा आपके घर में नकारात्मक ऊर्जा का प्रभुत्व है तो ऐसी दशा में आप चीनी बेम्बू का घर में प्रयोग करें। बेम्बू का वृक्ष आपके घर में सकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव में वृद्धि लाता है। 

यदि आपका भाग्य जैसे आपसे रूठ गया हो तथा सम्पत्ति व आय बढ़ाने के आपके हर उपाय व्यर्थ हो रहे हों, तो मकान या व्यापार स्थल के मुख्य द्वार पर चीनी फेंगशुई की पवन घंटियां तथा चीनी सिक्के लगाएं।

फेंगशुई के अनुसार कछुए को घर में रखना आपकी प्रगति व स्वास्थ्य की दृष्टि से शुभ संकेत होता है। 

पानी से भरे एक कटोरे में धातु का बना फेंगशुई कछुआ रखकर इस कटोरे को उत्तर दिशा में रखने से आपके घर में सुख-शांति का वास होता है। 

तीन टांगों वाले मेंढक को भी फेंगशुई में समृद्धि का प्रतीक माना गया है। 

यदि आपको लगता है कि आपकी आय के सारे स्त्रोत बंद हो गए है तो आप तीन रंगों वाले फेंगशुई मेंढक (जिसके मुंह में सिक्के लगे हो) को अपने घर में इस प्रकार रखें कि मेंढक की पूरी दृष्टि आपके घर की ओर हो। ऐसा करने से आपकी भाग्य वृद्धि होंगी तथा आपकी आय बढ़ेगी।

गणेशजी को गुस्सा क्यों नहीं आता है?


श्री गणेशाय नम: 
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यूं तो छत्तीस करोड़ हिन्दू देवी देवताओं की बहुत बड़ी रेंज है हमारे पास। फिर भी हम हर तरह के काम लेकर सीधे गणेशजी के पास ही जाते हैं। शायद इसलिए कि अन्य भगवानों की तरह उनका कोई प्रोटोकॉल नहीं है। जिसे फॉलो करना पड़े। यही एकमात्र देवता हैं जिनसे हर भक्त अपनत्व महसूस करता है। ऐसा ही कुछ दोस्ताना रिश्ता मेरा भी है, गणेश जी के साथ। इसे सबके साथ साझा करना भी मेरे लिए प्रथमेश की पूजा समान है। - आइए श्रीगणेश करें। 

लगभग डेढ़-दो दशक बाद जब गजानन घर पधारे तब उन्हें इस बात से कोई नाराजी नहीं थी कि हमने उनकी स्थापना इतने लंबे अंतराल के बाद की। उनकी इस फ्लेक्सिबिलिटी की अदा ने मुझे काफी आकृष्ट किया। बचपन से सुनते आए हैं कि जब शिव-पार्वती ने अपने दोनों पुत्रों गणेश और कार्तिकेय को तीनों लोकों की परिक्रमा करने के लिए कहा तो गणेशजी ने फटाफट अपने माता-पिता के चारों ओर परिक्रमा लगा ली। और भाईसाहब तीनों लोकों का चक्कर लगाते रहे। बस तभी से उन्हें ये आशीर्वाद मिला कि हर शुभ कार्य से पहले उन्हें पूजा जाएगा और वे प्रथमेश कहलाएंगे। 

गणेशजी के व्यक्तित्व का सबसे लोकप्रिय तत्व, यही है कि वे लकीर के फकीर नहीं हैं। समय और परिस्थिति के अनुसार निर्णय लेते हैं। इसीलिए वे बुद्धि के देवता हैं। लोकप्रिय होने के लिए मनुष्यों में भी सबसे आवश्यक योग्यता है सरलता और सहजता। इस पैमाने पर गणेशजी सबसे ज्यादा खरे उतरते हैं। पानी की तरह रवानीदार है उनका स्वभाव। उनकी पूजा करने के लिए पारंपरिक, धार्मिक रीति रिवाजों का बहुत ज्ञान होना भी जरूरी नहीं है। इसीलिए धार्मिक रूझान ज्यादा ना होने पर भी लंबोदर भगवान मुझे हमेशा से प्रिय हैं। 

गणपति बप्पा से मेरा प्रथम परिचय बचपन में हुआ था जब एक सार्वजनिक कार्यक्रम में सब गणेशजी की आरती के लिए इकट्ठे हुए थे। जैसे ही कानों में जयदेव-जयदेव जयमंगलमूर्ति के ओजपूर्ण स्वर सुनाई दिए मन में उत्साह का संचार होने लगा यों भी सुखकर्ता-दुखहर्ता श्री गणेश से भक्ति और पूजा के माध्यम से नहीं बल्कि संगीत के माध्यम से लगाव पैदा हुआ। वैसे इस लगाव का एक कारण मोदक भी हैं, जो गणेशजी की बदौलत ही हमें आजतक सतत मिलते आ रहे हैं। 

हमें लोकमान्य तिलक को धन्यवाद देना चाहिए जिन्होंने गणेशजी की स्थापना और पूजा को सार्वजनिक मंच प्रदान किया। संगीत के माध्यम से गणेशजी की आराधना करने के लिए लता मंगेशकर (गणपति अथर्वशीष) और अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन ( गाइए गणपति जगवंदन) की प्रशंसा भी हमें जरूर करना चाहिए। 

मंगलमूर्ति भगवान को कलाकारों ने भी कई रूपों में चित्रित किया और मूर्तियों में ढाला। इसकी वजह है। गणेशजी का मोहक स्वरूप और लचीला स्वभाव। इन्हें कला और विज्ञान का संरक्षक माना गया है। इसलिए कलाकरों को हर तरह के प्रयोग की छूट भी इन्होंने उदारतापूर्वक दी है। 

यदि कंप्यूटर के माउस के साथ गणेशजी हैं तो गुडहल के फूल में भी इनकी छवि देखी गई है। कुछ लोग मानते हैं कि गणेश जी ब्रम्हचारी हैं मगर प्रचलित मान्यता के अनुसार रिद्धि-सिद्धि और बुद्धि भी उनकी पत्नियां हैं। जनश्रुति है कि महर्षि वेद व्यास ने महाभारत को लिपिबद्ध करने का अनुरोध श्रेगणेश से ही किया था। खैर इतिहास में गोते लगाने के स्थान पर आज की बात करें। 

प्रबन्धन के बढ़ते महत्व के इस दौर में गणेशजी की प्रासंगिकता बढ़ गई है। इन्हें प्रबंधन का प्रतीक माना गया है। यदि इनके बड़े सिर से कुछ नया और विचारशील करने की प्रेरणा मिलती है तो छोटी आंखें एकाग्रतापूर्ण कार्य करने की प्रतीक हैं। छोटा मुंह इसलिए हैं कि कम बोलें और बड़े कान ज्यादा सुनने के लिए हैं। सबसे महत्वपूर्ण है इनका छोटा चपल वाहन यानि चूहा। जिसे पौराणिक ग्रंथों में तमो गुणों और कामनाओं का सूचक माना गया है (जिन पर श्री गणेश ने विजय पाई इसीलिए इसे उसे चरणों में बैठा बताया गया है)। 

लेकिन प्रबंधन के लिहाज से चूहे को सुनियोजित, बुद्धिमत्तापूर्ण और चपल निर्णयों के प्रतीक स्वरूप देखा जाता है। गणेश जी के छोटे कदम लक्ष्य की ओर धीमे किंतु सधे हुए कदम बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं। इस एकदंत चारभुजाधारी देवता के बारे में विभिन्न व्याख्याएं हैं। खैर भुजाएं चार हों या सोलह ये अपने सीमित संसाधनों से भी असीमित परिणाम देने का सामर्थ्य रखते हैं। इसीलिए परीक्षा के दिनों में गणेशजी के दरबार में लंबी कतारें देखी जा सकती हैं।

इतनी सारी योग्यताओं और विशेषताओं से पूर्ण कोई देवता हों तो उनका लोकप्रिय होना लाजमी है। इन्हीं कारणों से गजानन भगवान के भक्त भारत के साथ ही दुनिया के कई हिस्सों में हैं। कंबोडिया हिन्द चीन बर्मा और थाईलैड से लेकर नेपाल, अफगानिस्तान और कई पश्चिमी देशों में भी गणेशजी की पूजा की जाती रही है।

इन्हें ज्ञान और बुद्धि का देवता माना जाता है। इसीलिए इन्हें क्रोध नहीं आता। क्रोध वहीं है जहां अज्ञान है। ऐसे हैं हमारे प्रिय गणपति बप्पा.. और एक हैं इनके पप्पा शिवजी, जिन्हें गुस्सा आ जाए तो अपने तांडव नृत्य से धरती अंबर हिला दें। गणेशजी को पानी के लोटे में डुबोए रखने पर भी वो उफ नहीं करते (मान्यता है कि ऐसा करने से संकट टल जाता है)। उनकी मूर्ति को हर साल विसर्जित कर देने पर भी वे हर बरस हंसते हुए विराजित होने आते हैं। इसी धैर्य और सहनशीलता के कारण वे विघ्नेश्वर और विघ्नहर्ता कहलाते हैं। 

हर तरह की पूजा में गणेशजी की उपस्थिति अपरिहार्य है। अपने नाम की सुपारी रख कर पूजा किए जाने पर भी वो नाराज नहीं होते, बल्कि मदद ही करते हैं। कार्य की शुरुआत गणेशजी का स्मरण एक दूसरे का पर्याय ही हैं। ऐसे हमेशा अपने से लगने वाले श्री गणेश को बारंबार नमन और अगले बरस जल्दी आने का आग्रह।

भगवान कृष्ण का दिवस है अनंत चर्तुदशी



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गणेश चतुर्थी से गणेशजी का दस दिवसीय उत्सव अनंत चर्तुदशी पर समाप्त होता है। अनंत स्वयं भगवान कृष्ण रूप है। भगवान कृष्ण से युधिष्ठिर पूछते है- श्रीकृष्ण ये अनं‍त कौन है? क्या शेष नाग हैं, क्या तक्षक सर्प है अथवा परमात्मा को कहते है। 

तब श्रीकृष्ण कहते हैं मैं वहीं कृष्ण हूं जो (अनंत रूप मेरा ही है) सूर्यादि ग्रह और यह आत्मा जो कहे जाते हैं। और पल-विपुल-दिन-रात-मास-ऋतु-वर्ष-युग यह सब काल कहे जाते हैं। जो काल कहे जाते है, वहीं अनंत कहा जाता है। क्योंकि ये निरंतर चलता रहता है। 

मैं वहीं कृष्ण हूं जो पृथ्वी का भार उतारने के लिए बार-बार अवतार लेता हूं। आदि, मध्य, अंत कृष्ण, विष्णु, हरि, शिव, वैकुंठ, सूर्य-चंद्र, सर्वव्यापी ईश्वर तथा सृष्टि को नाश करने वाले विश्व रूप महाकाल इत्यादि रूपों को मैंने अर्जुन के ज्ञान के लिए दिखलाया था। अनंत चर्तुदशी पर प्रभु की ये प्रार्थना अत्यंत लाभदायक है। 

त्वमादिदेव: पुरुष: पुराण- 
स्त्वमस्य विश्वस्य परं विधानम् 
वेन्तासि वेधं च परं च धाम 
त्वया तवं विश्वमनंतरूपं। 

अर्थात् आप आदि देव और सनातन पुरुष हैं। आप इस जगत के आश्रयदाता, जानने योग्य और परम धाम है। हे अनंत रूप आपसे ही यह सब जगत व्याप्त अर्थात् परिपूर्ण है। 

वायुर्यमोदग्निर्वरूण: शशांक: 
प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च। 
नमो नमस्तेस्तु सहस्त्रकृत्व: 
पुनश्च भुयोपि नमो नमस्ते।। 

अर्थात् आप वायु,यमराज, अग्नि, वरूण,चंद्रमा, प्रजा के स्वा‍मी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता है। आपके लिए हजारों बार नमस्कार है-नमस्कार है। आपके लिए पुन: बारंबार नमस्कार है। 

हे अनंत सामर्थ्यवाले देव, आपको चारों दिशाओं से नमस्कार है। आपको आगे और पीछे से भी नमस्कार है, क्योंकि अनंत पराक्रमशाली आप, समस्त संसार को व्याप्त किए हुए हैं।। अत: आप ही सर्वरूप है। 

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अनंत चतुर्दशी के दिन इस प्रकार प्रभु से प्रार्थना करके देखिए, अनंत देव आपके सारे कार्य संपन्न कर देंगे और प्रसन्न होंगे। जैसे, कौंडिल्य के अपराध को क्षमा कर प्रसन्न हुए थे। 

अनंत चतुर्दशी की कथा : 
सतयुग में एक सुमंत नाम का ब्राह्मण था। उसने अपनी कन्या शीला का विवाह विधि-विधानपूर्वक कौंडिल्य ऋषि से कर दिया। शीला ने अनंत चर्तुदशी पर पूजन कर कौंडिल्य को चौदह गांठ वाला (धागा) अनंत भुजा में बांध दिया, परंतु कौंडिल्य ने उस धागे का अपमान कर उसे आग में जला दिया। परिणामस्वरूप उन्हें कई कष्टों का सामना करना पड़ा। 

पूरे ब्रह्मांड में भटकने के बाद भी शरण नहीं मिली। अंत में बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर थोड़ा होश आने पर ह्रदय से अनंत देव को- हे अनंत! कहकर आवाज लगाई। तभी शंख चक्रधारी श्री भगवान ने स्वयं प्रकट होकर आशीर्वाद दिया, ऐसे हैं दयालु प्रभु। 

उस अनंत भगवान के शरण में जाने से सर्वकार्य मनोरथ पूर्ण हो जा‍ते हैं। अनंत चर्तुदशी अपने आपमें भगवान स्वयं कृष्ण का दिवस है। 

लज्जतदार दाल सलाद


सामग्री :
1 कटोरी साबुत अंकुरित मूंग, 1 कटोरी अंकुरित मोठ, 1/2 कटोरी अंकुरित लाल चना, 1/2 चम्मच सिंका हुआ जीरा, 1 प्याज, 1 टमाटर, 1 ककड़ी, 1 उबला आलू, नमक व चाट मसाला स्वादानुसार।

विधि :
अंकुरित दालों को एक बर्तन में डालकर 1 गिलास पानी और नमक के साथ 5 मिनट गर्म करें। टमाटर, प्याज व ककड़ी को बारीक काट लें। फिर इन सबको दाल में डालकर मिक्स करें।

आलू को मसलकर डाल दें। अब चाट मसाला, जीरा और 1/2 चम्मच नींबू का रस मिलाएं। सबको अच्छी तरह मिक्स करें। आप इसमें हरी चटनी या सॉस भी मिला सकते हैं।

श्रीमद्‍भगवद्‍गीत


कल्याण की इच्छा वाले मनुष्यों को उचित है कि मोह का त्याग कर अतिशय श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने बच्चों को अर्थ और भाव के साथ श्रीगीताजी का अध्ययन कराएँ।

स्वयं भी इसका पठन और मनन करते हुए भगवान की आज्ञानुसार साधन करने में समर्थ हो जाएँ क्योंकि अतिदुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी दु:खमूलक क्षणभंगुर भोगों के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है।

गीताजी का पाठ आरंभ करने से पूर्व निम्न श्लोक को भावार्थ सहित पढ़कर श्रीहरिविष्णु का ध्यान करें--

अथ ध्यानम्
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्यनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।
भावार्थ : जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो ‍देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै-
र्वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो-
यस्तानं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।।
भावार्थ : ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्‍गण दिव्य स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गाने वाले अंग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं, योगीजन ध्यान में स्थित तद्‍गत हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं, देवता और असुर गण (कोई भी) जिनके अन्त को नहीं जानते, उन (परमपुरुष नारायण) देव के लिए मेरा नमस्कार है।

कैसे जानें साप्ताहिक राशिफल विविध भाव में चंद्रमा का भ्रमण


आप हर सप्ताह अखबार या न्यूज चैनलों में अपनी राशि का भविष्य-फल देखते-पढ़ते हैं। आइए जानते हैं कि सप्ताह का राशिफल कैसे निकाला जाता है? सप्ताह का फलादेश मुख्यत: चंद्रमा के भ्रमण पर निर्भर रहता है। चंद्रमा सप्ताह भर में लग्न या राशि से जिस भाव में भ्रमण करता है, उस तरह से दैनिक/साप्ताहिक राशिफल निर्धारित किया जाता है।

चंद्रमा का विविध भाव में गोचर का फल :

1. प्रथम भाव : भाग्योदय, उपहार प्राप्ति, धन लाभ, उत्तम भोजन, कार्य की सफलता।
2. द्वितीय भाव : मन में अस्थिरता, असंतोष, नेत्र विकार, व्यर्थ भागदौड़, अपव्यय।
3. तृतीय भाव : पराक्रम वृद्धि, धन लाभ, प्रसन्नता, सम्मान, उन्नति के अवसर मिलना
4. चतुर्थ भाव : दिनचर्या अस्तव्यस्त होना, व्यर्थ की भागदौड़ परिवार में विवाद, अनिद्रा
5. पंचम भाव : शोक, संतान से कष्ट, वायु विकार, धन हानि
6. षष्ठ भाव : धन लाभ, शत्रुओं पर विजय, पारिवारिक सुख-शांति, स्वास्थ्‍य लाभ
7. सप्तम भाव : धन लाभ, यश, स्त्री व वाहन सुख, समस्या समाधान
8. अष्टम भाव : कष्ट, कार्य में बाधाएँ, धन ह‍ानि, अस्वस्थता
9. नवम भाव : अपयश, राज्य भय, व्यर्थ प्रवास, व्यापार में असफलता
10. दशम भाव : कार्य सिद्धि, सुख व लाभ की प्राप्ति, निरोगी काया
11. एकादश भाव : प्रसन्नता, धन लाभ, उत्तम भोजन व द्रव्य की प्राप्ति, परिजनों का सुख
12. द्वादश भाव : धन हानि, रोग, अपव्यय, दुर्घटना, वाद-विवाद


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यदि चंद्रमा कुंडली में बलशाली हो तो उसके 2, 5, 8, 9, 12 में गोचर होने पर भी अशुभता कम होती है। शुक्ल पक्ष में चंद्रमा बली माना जाता है, कृष्ण पक्ष में भी नवमी तिथि तक चंद्रमा शुभ होता है। क्षीण या अस्त चंद्रमा दुख कारक माना जाता है।

कैसे जानें ‍राशिफल : चंद्रमा से प्राय: दैनिक कार्यों की शुभता देखी जाती है। माना कि आपकी राशि मेष है और सप्ताह भर में चंद्रमा कर्क, सिंह व कन्या राशि में भ्रमण कर रहा है, तो यह आपकी राशि से क्रमश: चौथे, पाँचवें व छठे भाव में भ्रमण करेगा। दिए गए भाव फलों के अनुसार फल की गणना करें व ‍इच्छित कार्य सफल होगा या नहीं, निर्धारित करें।

विशेष : यदि उक्त सप्ताह में कोई अन्य ग्रह अपनी राशि बदल रहा है तो उसका तात्कालिक प्रभाव भी राशिफल में गिना जाएगा।

अच्छी संगति सुधारेगी आपका जीवन


मनुष्य के अंतः करण में सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण तीनों बीज रूप में विद्यमान रहते हैं। जैसा वातावरण मिलेगा वह बीज रूप से वृक्ष बनने लगेंगे। अतः संग का मनुष्य के जीवन में बहुत बड़ा महत्व है। संग सांसारिक विषयों में घिरे लोगों का होगा तो वह कुसंग में बदल कर सर्वनाश का कारण बन जाएगा।

यदि संग जीवन मुक्त, ब्रह्मनिष्ठ संतों का होगा तो वह मनुष्य के उद्धार का कारण बन जाएगा। इसीलिए नारद भक्ति सूत्र में कहा है सर्वप्रथम मनुष्य को अपनी कामनाओं को नियंत्रण में रखने के लिए अपना संग सुधारना होगा।
अपनी संगति सुधारो सब कुछ सुधर जाएगा। अपने अंतःकरण में कामना का बीज उत्पन्न होने से पूर्व ही सिद्ध संतों की चरण-शरण ले लो। जैसी संगति होगी वैसा ही चिंतन प्रारंभ हो जाएगा। दुःसंग से अपने साधन अर्थात्‌ ईश्वर भक्ति के विपरीत चिंतन होने लगता है और यही चिंतन मनुष्य के मन में सांसारिक रसों के प्रति आसक्ति प्रकट कर देता है और फिर कामना की पूर्ति न होने पर मोह उत्पन्न होने लगता है। मोह ग्रसित व्यक्ति की स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। जिसके कारण उसकी बुद्धि कर्तव्य का विवेक न होने के कारण उसका सर्वनाश कर देती है।

'तरंगयिता अपीमे सगांत्‌ समुद्रायन्ति' - यदि किसी कारण साधक, काम-क्रोध से होता हुआ बुद्धि नाश की स्थिति तक पहुंच भी जाता है तो उसके मन में सदगुरु की कृपा एवं ईश्वर की भक्ति का भाव बना रहने पर वह सर्वनाश से बच जाता है और उसे अपनी भक्ति साधना को पुनर्जीवित करने का अवसर मिल जाता है।

यही स्थिति भक्ति सूत्र को देने वाले देवर्षि नारद की भी हुई थी, क्योंकि विश्वमोहिनी से विवाह करने की कामना उन्हें बुद्धिनाश की स्थिति तक पहुंचा देती है लेकिन भगवान की करुण कृपा के फलस्वरूप वह पुनः अपने संत स्वरूप को प्राप्त हो लेते हैं। सूत्र है कि लौकिक कामना से भगवद्भक्त संत भी संत स्वरूप से लोकविषयों में फंस जाता है और प्रभु कृपा होते ही विषयों की कामना से उपराम होकर वह पुनः परमसंतत्व को प्राप्त कर अपने तत्वज्ञान से जगत का उद्धारक बन जाता है।

सत, रज और तम तीनों गुणों की साम्य अवस्था का नाम प्रकृति है। भगवान अपनी शक्ति से इसी प्रकृति द्वारा संसार की रचना करते हैं। मनुष्य का अंतः करण प्रकृति का परिणाम है इसमें यह तीनों गुण विद्यमान रहते हैं। यही मनुष्य के भांति-भांति प्रकार के संस्कारों को तरंगित करते रहते हैं।

साधक इनको समझते हुए इनके प्रभाव से बचने का उपाय खोजता हैं लेकिन सिद्ध संत इन तीनों के प्रभाव से परे इन्हें साक्षी भाव से देखते हैं और इनका उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसीलिए सिद्ध त्रिगुणातीत होते हैं।

जीवन में ज्ञान का महत्व जीवन में ज्ञान के बिना है सब अधूरा


ज्ञान और अज्ञान में इतना ही भेद है कि बीच में एक भ्रम का परदा लगा हुआ है। जहां परदा खुल गया, अज्ञान समाप्त हो गया, ज्ञान की ज्योति जग गई, मनुष्य जो अपने आपको भूला हुआ था, होश में आ गया कि मैं कौन हूं? मेरा लक्ष्य क्या है? मैं क्या करने आया था और क्या करने लगा? मैं क्या लेकर आया था और मुझे क्या लेकर जाना है?

इस प्रकार अज्ञान रूपी अंधकार में फंसा हुआ जीव प्रकाश होते ही सत्य को देखने लगता है। यह बात अत्यंत विचारणीय है कि- हे मनुष्य, तू हंस स्वरूप हैं। जब तक तू कर्तापन के भ्रम में फंसा हुआ है कि तू नर है या नारी, बूढ़ा है या जवान है, पूजा-पाठ, क्रिया-कर्म, गीता-भागवत, रामायण, वेद शास्त्र, उपन्यास जितना मर्जी पढ़ लो लेकिन ज्ञान के बिना सब अधूरा है क्योंकि ज्ञान में ही सब लय है। अगर ज्ञान नहीं है तो सब कुछ अधूरा-सा ही लगेगा।

इसलिए हे मनुष्य! तू चेतन है, पहले अपने होश में तू आ जा। 'कहां से तू आया कहां लपटायो?'

'निर्गुण से हंस आयो, सर्गुण में समायो, काया गढ़ की बंधी माया में समाया।'

सर्गुण माने यह स्वर जो चल रहा है। निर्गुण से आकर यह स्वर में प्रवेश किया। बहुत से लोग सर्गुण इस शरीर को मानते हैं या वह जो मूर्ति प्रतिमा दिखाई देते हैं उन्हें सर्गुण मानते हैं, पर वह सर्गुण नहीं है। जो यह स्वर चल रहा है और इसका गुणों में प्रवेश है, उसे सर्गुण कहते हैं।

सर्गुण में समायो और कायागढ़ की बंधी माया में आकर डेरा डाला, मकान जो बना था उसमें डेरा डाला और जो काया से माया तक का विस्तार हुआ था इसमें तू लपटा गया तो सब कुछ भूल गया, होश नहीं रहा, फिर कोई संत मिले और चेतावनी दी कि- हे मनुष्य! तू कहां भरमा था, देख तू कौन है?

पांच तत्व में तू कोई तत्व ही नहीं, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश में तू कुछ भी नहीं। तू न रजो गुण है, न सतो गुण और न तमो गुण है। फिर तू क्या है? 'चेतन जीव आधार है, सोहंग आप ही आप।'

आत्मा का विकास ही सच्चा धर्म... सभी बंधनों से मुक्त हैं ईश्वर


हम सबके मन में कभी न कभी यह प्रश्न आता होगा कि वास्तव में धर्म क्या है? हमारे जीवन में धर्म धारण करने का क्या उपाय है? क्या किसी मन में दीक्षित हो जाना धार्मिक बनने की पहचान है? आमतौर पर धर्म को मत-मतांतरों से जोड़ दिया गया है।

असल में धर्म बाहर की वस्तु नहीं यह भीतर का विकास है, उसे समाज में नहीं, व्यक्ति के अंतराल में ढूंढ़ा जाना चाहिए। धर्म व्यक्ति और व्यष्टि के बीच में तादाम्य की फलश्रुति है, जब कि व्यक्ति और समाज के मध्य का संबंध संप्रदाय कहलाता है। धर्म और संप्रदायवाद में उतना ही अंतर है जितना जीवन और मृत्यु। जहां धर्म होगा, वहां सर्वत्र सुगंधि बिखरती रहेगी, जहां संप्रदायवाद होगा, वहां सड़न और दुर्गंध होगी। करुणा उदारता, सेवा सहकारिता, यह तो जीवन की सहचरी और चैतन्यता के लक्षण हैं।

धर्म और संप्रदाय में यदि कोई अंतर है तो उसे उतना ही विशाल होना चाहिए जितना कि आकाश और पाताल क्योंकि धर्म हमें ऊंचाइयों के प्रति श्रद्धावान बनाता है और इस बात की प्रेरणा देता है कि हमारा अंतराल अहंकारपूर्ण नहीं अहंशून्य होना चाहिए। जहां अहमन्यता होगी, विवाद और विग्रह वहीं पैदा होंगे। जहां सरलता होगी वहां सात्विकता पनपेगी। सरल और सात्विक होना दैवी विभूतियां हैं। जो इन्हें जितने अंशों में धारण करता है, उनके बारे में यह कहा जा सकता है कि वे उस अनुपात में धार्मिक हैं।

इसलिए यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि धर्म हमें देवत्व की ओर ले चलता है, जबकि संप्रदाय अधोगामी भी बनाता है। कट्टरवाद, उग्रवाद यह सभी संप्रदायवाद की देन है। सांप्रादायिक होने का मतलब है कूपमंडूक होना, केवल अपने वर्ग एवं समूह की ही चिंता करना। इसके अतिरिक्त धर्म अधिक उदार बनाता तथा आत्मविस्तार का उपदेश देता है। 'आत्मवत सर्वभुतेषु एवं वसुधैव कुटुम्कबम' यह इसी की शिक्षा है।


संप्रदाय असहिष्णु होता है। वह उन्माद और आतंक फैलाता है। जाति, भाषा, लिंग, क्षेत्र आदि के आधार पर विभेद करना यह संप्रदाय का काम है। धर्म तो ईश्वर की तरह समदष्टा है वह कहता है कि हम सब को परमात्मा की रक्षा करनी चाहिए। हम इसी ऊहापोह में फंसे रहते हैं कि कहीं कोई शूद्र मंदिर के ईश विग्रह को अपवित्र न कर दे, किसी तनखैये को गुरुद्वारे में क्या काम, कोई काफिर मस्जिद में न घुसे।

हमारे मनीषियों का कहना है, ' धर्म एवं हतो हन्ति रक्षति रक्षतः' अर्थात्‌ मरा हुआ धर्म मार डालता है, रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है। आज की सामाजिक परिस्थिति के इस सत्य के प्रमाण रूप में देखा जा सकता है। धर्म को खतरा अधर्म से नहीं, नकली धर्म से होता है। अधर्म तो प्रत्यक्ष है, इसमें दुराव- छुपाव जैसी कोई बात तो होती नहीं, खतरनाक वे है जो धर्म की आड़ लेकर काम करते हैं, क्योंकि वहां असली आवरण में नकली व्यक्ति होता है।

हिंदू धर्म में अनेक देवी-देवताओं की मान्यता है देवताओं की संख्या तैंतीस कोटि बताई जाती है। देवताओं की इतनी बड़ी संख्या एक सत्य शोधक को बड़ी उलझन में डाल देती है। इन देवताओं में अनेक की तो ईश्वर से समता मानी जाने लगी है इस प्रकार 'बहुईश्वरवाद' उपज खड़ा होता है।

संसार के प्रायः सभी प्रमुख धर्म एक ईश्वरवाद को मानते हैं। हिंदू धर्म शास्त्रों में भी अनेक अभिवचन एक ईश्वर होने के समर्थन में भरे पड़े हैं। फिर यह अनेक ईश्वर कैसे? ईश्वर की ईश्वरता में साझेदारी का होना कुछ बुद्धिसंगत प्रतीत नहीं होता। अनेक देवताओं का अपनी-अपनी मर्जी से मनुष्यों पर शासन करना, शाप-वरदान देना आदि ईश्वर जगत की अराजकता है।

एक शास्त्र वचन है-
उत्तमो ब्रह्म, सद्भावो ध्यानभावस्तु मध्यमः
सतुर्तिजपोऽधमो भावो बहिः पूजाऽधमाधमा।

अर्थात्‌ बाह्यपूजा या मूर्ति पूजा सब से नीचे की अवस्था है। आगे बढ़ने, ऊंचा उठने का प्रयास करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था है। सबसे उच्च अवस्था वह है जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाए।

वेद भी कहते हैं न 'तस्य प्रतिमा अस्ति' अर्थात्‌ ईश्वर तेरी कोई प्रतिमा नहीं है। अध्यात्म विज्ञान में महान वैज्ञानिक महर्षि पतंजलि ईश्वर को बड़ा स्पष्ट रीति से परिभाषित करते हैं। यह परिभाषा साधनों के लिए आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य भी है, क्योंकि यह ऐसा शब्द है, ऐसा सत्य है जिसके बारे में ज्यादातर लोग भ्रमित हैं।

शास्त्र पुराण धर्म, महजब सबने मिलकर ईश्वर की अनेक धारणाएं गढ़ी हैं कोई तो उसे सातवें आसमान में खोजता है तो कोई मंदिरों पूजाग्रहों में योगेश्वर पतंजलि ने सभी तरह का सत्यनिराकरण किया है। वे कहते हैं कि पहले तो ईश्वर को किसी व्यक्तित्व में न बांधो। वह सभी बंधनों से मुक्त हैं।

संन्यास आश्रम


जिस तरह ब्रह्मचर्य में ग्रहस्थ की, ग्रहस्थ में वानप्रस्थ की तैयारी होती है उसी तरह वानप्रस्थ में संन्यास की तैयारी होती है। तब वन के आश्रम का भी त्याग हो जाता है।- ऐसी अवस्था को ही परिवाज्रक कहा गया है।


परिव्राजक विचरण करता है। उसे ही ब्रह्म निष्‍ठ कहा गया है। यही मोक्ष है। संन्यास आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम की पुनरावृत्ति है। प्राचीन भारत में ऋषि-मुनि वन में कुटी बनाकर रहते थे। जहाँ वे ध्यान और तपस्या करते थे। उक्त जगह पर समाज के लोग अपने बालकों को वेदों का अध्ययन करने के अलावा अन्य विद्याएँ सीखने के लिए भेजते थे। धीरे-धीरे यह आश्रम संन्यासियों, त्यागियों, विरक्तों धार्मिक यात्रियों और अन्य लोगों के लिए शरण स्थली बनता गया।

सनातन धर्म में संन्यास को बहुत महत्व दिया गया है। संन्यासी को साधु, ऋषि, मुनि, महात्मा, स्वामी या परिव्राजक कहा जाता है। संन्यासियों के भी कई भेद बताए गए हैं, लेकिन पुराणकारों के अनुसार संन्यास आश्रम के दो भेद हैं।

संन्यास आश्रम में रहने वाले व्यक्ति को पारमेष्ठिक या योगी कहा जाता है। योगाभ्यास द्वारा अपनी इन्द्रियों और मन को जीतने वाला तथा मोक्ष की कामना रखने वाला व्यक्ति पारमेष्ठिक संन्यासी कहलाता है। लेकिन व्यक्ति ब्रह्म का साक्षात्कार कर अपनी आत्मा में ही परमात्मा के दिव्य स्वरूप का दर्शन करता है, तो उसे 'योगी संन्यासी' कहा जाता है।

वैष्णव, शैव, शाक्त, दसनामी और नाथ संप्रदाय में साधुओं के अलग-अलग भेद हैं, लेकिन कहलाते सभी संन्यासी ही है। संन्यासी होने के लिए संन्यासी भाव का होना जरूरी है तभी संन्यास आश्रम मोक्षदायी सिद्ध होता है। संन्यास की श्रेष्ठ अवस्था है परमहंस हो जाना।

चार पुरुषार्थ को जानें


भारतीय परम्परा में जीवन का ध्येय पुरुषार्थ को माना गया है। धर्म का ज्ञान होना जरूरी है तभी कार्य में कुशलता आती है कार्य कुशलता से ही व्यक्ति जीवन में अर्थ अर्जित कर पाता है। काम और अर्थ से इस संसार को भोगते हुए मोक्ष की कामना करनी चाहिए।

पुरुषार्थ चार है- (1)धर्म (religion 0r righteouseness), (2)अर्थ (wealth) (3)काम (Work, desire and Sex) और (4)मोक्ष (salvation or or liberation)।

उक्त चार को दो भागों में विभक्त किया है- पहला धर्म और अर्थ। दूसरा काम और मोक्ष। काम का अर्थ है- सांसारिक सुख और मोक्ष का अर्थ है सांसारिक सुख-दुख और बंधनों से मुक्ति। इन दो पुरुषार्थ काम और मोक्ष के साधन है- अर्थ और धर्म। अर्थ से काम और धर्म से मोक्ष साधा जाता है।

(1)धर्म- धर्म से तात्पर्य स्वयं के स्वभाव, स्वधर्म और स्वकर्म को जानते हुए कर्तव्यों का पालन कर मोक्ष के मार्ग खोलना। मोक्ष का मार्ग खुलता है उस एक सर्वोच्च निराकार सत्ता परमेश्वर की प्रार्थना और ध्यान से। ज्ञानीजन इसे ही यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार कहते हैं।

तटस्थों के लिए धारणा और ध्यान ही श्रेष्ठ है और भक्तों के लिए परमेश्वर की प्रार्थना से बढ़कर कुछ नहीं- इसे ही योग में ईश्वर प्राणिधान कहा गया है- यही संध्योपासना है। धर्म इसी से पुष्‍ट होता है। पुण्य इसी से अर्जित होता है। इसी से मोक्ष साधा जाता है।

(2)अर्थ- अर्थ से तात्पर्य है जिसके द्वारा भौतिक सुख-समृद्धि की सिद्धि होती हो। भौतिक सुखों से मुक्ति के लिए भौतिक सुख होना जरूरी है। ऐसा कर्म करो जिससे अर्थोपार्जन हो। अर्थोपार्जन से ही काम साधा जाता है।

(3)काम- संसार के जितने भी सुख कहे गए हैं वे सभी काम के अंतर्गत आते हैं। जिन सुखों से व्यक्ति का शारीरिक और मानसिक पतन होता है या जिनसे परिवार और समाज को तकलीफ होती है ऐसे सुखों को वर्जित माना गया है। अर्थ का उपयोग शरीर, मन, परिवार, समाज और राष्ट्र को पुष्ट करने के लिए होना चाहिए। भोग और संभोग की अत्यधिकता से शोक और रोगों की उत्पत्ति होती है। दोनों के लिए ही समय और नियम नियुक्ति हैं।

(4)मोक्ष- मोक्ष का अर्थ है पदार्थ से मुक्ति। इसे ही योग समाधि कहता है। यही ब्रह्मज्ञान है और यही आत्मज्ञान भी। ऐसे मोक्ष में स्थित व्यक्ति को ही कृष्ण स्थितप्रज्ञ कहते हैं। हिंदूजन ऐसे को ही भगवान, जैन अरिहंत और बौद्ध संबुद्ध कहते हैं। यही मोक्ष, केवल्य, निर्वाण या समाधि कहलाता है।

योग में समाधि की दो अवस्थाएँ मानी गई है- (1) सम्प्रज्ञात और (2) असंम्प्रज्ञात समाधि। इन दोनों के उप-भेद भी है।

पुराणिकों ने इसके छ प्रकार बताए हैं- (1) सार्ष्टि (ऐश्‍वर्य), (2) सालोक्य (लोक की प्राप्ती), (3) सारूप (ब्रह्म स्वरूप), (4) सामीप्य (ब्रह्म के पास), (5) साम्य (ब्रह्म जैसी समानता), (6) लीनता या सामुज्य (ब्रह्म में लीन हो जाना)। ब्रह्मलीन हो जाना ही पूर्ण मोक्ष है।

मोक्ष प्राप्त व्यक्ति की देवता, पितर, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु और सामान्यजन आराधना करते हैं। उन्हें ही भगवान कहते हैं। किंतु श्रेष्ठजन सिर्फ परमेश्वर की ही आराधना करते हैं। क्योंकि वह जानते हैं कि उस एक परमेश्वर को साधने से ही सब स्वत: ही सधते हैं। उसे छोड़कर और किसी को साधने से जिसे साधा जा रहा है वही सधता है ईश्वर नहीं।

संध्या वंदन है सभी का कर्तव्य


'सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है।'-आचार भूषण-89


वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता और अन्य धर्मग्रंथों में संध्या वंदन की महिमा और महत्व का वर्णन किया गया है। प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य है संध्या वंदन करना। संध्या वंदन प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है। कृतज्ञता से सकारात्मकता का विकास होता है। सकारात्मकता से मनोकामना की पूर्ति होती है और सभी तरह के रोग तथा शोक मिट जाते हैं।

संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। संधि काल में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे संधि पाँच वक्त (समय) की होती है, लेकिन प्रात: काल और संध्‍या काल- उक्त दो समय की संधि प्रमुख है। अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।

यह समय मौन रहने का भी है। इस समय के दर्शन मात्र से ही शरीर और मन के संताप मिट जाते हैं। उक्त काल में भोजन, नींद, यात्रा, वार्तालाप और संभोग आदि का त्याग कर दिया जाता है। संध्या वंदन में 'पवित्रता' का विशेष ध्यान रखा जाता है। यही वेद नियम है। यही सनातन सत्य है। संध्या वंदन के नियम है। संध्‍या वंदन में प्रार्थना ही सर्वश्रेष्ठ मानी गई है।

वेदज्ञ और ईश्‍वरपरायण लोग इस समय प्रार्थना करते हैं। ज्ञानीजन इस समय ध्‍यान करते हैं। भक्तजन कीर्तन करते हैं। पुराणिक लोग देवमूर्ति के समक्ष इस समय पूजा या आरती करते हैं। तब सिद्ध हुआ की संध्योपासना के चार प्रकार है- (1)प्रार्थना, (2)ध्यान, (3)कीर्तन और (4)पूजा-आरती। व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है।


(1)प्रार्थना : प्रार्थना को उपासना और आराधना भी कह सकते हैं। इसमें निराकार ईश्वर के प्रति कृतज्ञता और समर्पण का भाव व्यक्त किया जाता है। इसमें भजन या कीर्तन नहीं किया जाता। इसमें पूजा या आरती भी नहीं की जाती। प्रार्थना का असर बहुत जल्द होता है। समूह में की गई प्रार्थना तो और शीघ्र फलित होती है। सभी तरह की आराधना में श्रेष्ठ है प्रार्थना। प्रार्थना करने के भी नियम है। वेदज्ञ प्रार्थना ही करते हैं। वे‍दों की ऋचाएँ प्रकृति और ईश्वर के प्रति गहरी प्रार्थनाएँ ही तो है। ऋषि जानते थे प्रार्थना का रहस्य।

(2)ध्यान : ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। ध्यान का मूलत: अर्थ है जागरूकता। अवेयरनेस। होश। साक्ष‍ी भाव। ध्यान का अर्थ ध्यान देना, हर उस बात पर जो हमारे जीवन से जुड़ी है। शरीर पर, मन पर और आसपास जो भी घटित हो रहा है उस पर। विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर। इस ध्यान देने के जारा से प्रयास से ही हम अमृत की ओर एक-एक कदम बढ़ा सकते हैं। ध्यान को ज्ञानियों ने सर्वश्रेष्ठ माना है। ध्यान से मनोकामनाओं की पूर्ति होती है और ध्यान से मोक्ष का द्वार खुलता है।

(3)कीर्तन : ईश्वर, भगवान या गुरु के प्रति स्वयं के समर्पण या भक्ति के भाव को व्यक्त करने का एक शांति और संगीतमय तरीका है कीर्तन। इसे ही भजन कहते हैं। भजन करने से शांति मिलती है। भजन करने के भी नियम है। गीतों की तर्ज पर निर्मित भजन, भजन नहीं होते। शास्त्रीय संगीत अनुसार किए गए भजन ही भजन होते हैं। सामवेद में शास्त्रीय सं‍गीत का उल्लेख मिलता है।


(4)पूजा-आरती : पूजा करने के पुराणिकों ने अनेकों तरीके विकसित किए है। पूजा किसी देवता या देवी की मूर्ति के समक्ष की जाती है जिसमें गुड़ और घी की धूप दी जाती है, फिर हल्दी, कंकू, धूम, दीप और अगरबत्ती से पूजा करके उक्त देवता की आरती उतारी जाती है। अत: पूजा-आरती के ‍भी नियम है।

हिंदू कर्तव्यों में सर्वोपरी है संध्या वंदन। संध्या वंदन में सर्वश्रेष्ठ है प्रार्थना। प्रार्थना को वैदिक ऋषिगण स्तुति या वंदना कहते थे। इसे करना प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य है। आगे जानेंगे हम वैदिक प्रार्थनाओं का रहस्य।


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हिन्दू धर्म : दैनिक कार्यों के नियम- प्रात: काल के नियम


पशु, पक्षी, पितर, दानव और देवताओं की जीवन चर्या के नियम होते हैं, लेकिन मानव अनियमित जीवन शैली के चलते धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से अलग हो चला है। रोग और शोक की गिरफ्त में आकर समय पूर्व ही वह दुनिया को अलविदा कह जाता है। नियम विरुद्ध जीवन जीने वाला व्यक्ति ही दुनिया को खराब करने का जिम्मेदार है।

सनातन धर्म ने हर एक हरकत को नियम में बाँधा है और हर एक नियम को धर्म में। यह नियम ऐसे हैं जिससे आप किसी भी प्रकार का बंधन महसूस नहीं करेंगे, बल्कि यह नियम आपको सफल और ‍निरोगी ही बनाएँगे। नियम से जीना ही धर्म है।

।।कराग्रे वस्ते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती।
कर पृष्ठे स्थितो ब्रह्मा, प्रभाते कर दर्शनम्‌॥

*प्रात:काल जब निद्रा से जागते हैं तो सर्व प्रथम बिस्तर पर ही हाथों की दोनों हथेलियों को खोलकर उन्हें आपस में जोड़कर उनकी रेखाओं को देखते हुए उक्त का मंत्र एक बार मन ही मन उच्चारण करते हैं और फिर हथेलियों को चेहरे पर फेरते हैं।

पश्चात इसके भूमि को मन ही मन नमन करते हुए पहले दायाँ पैर उठाकर उसे आगे रखते हैं और फिर शौचआदि से निवृत्त होकर पाँच मिनट का ध्यान या संध्यावंदन करते हैं। शौचआदि के भी नियम है।

*संध्यावंदन : शास्त्र कहते हैं कि संध्यावंदन पश्चात ही किसी कार्य को किया जाता है। संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। संधि काल में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे मुख्यत: संधि पाँच-आठ वक्त की होती है, लेकिन प्रात: काल और संध्‍या काल- उक्त दो वक्त की संधि प्रमुख है। अर्थात सूर्य उदय और अस्त के वक्त। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से परमेश्वर की प्रार्थना की जाती है।

*घर से बाहर जाते वक्त : घर (गृह) से बाहर जाने से पहले माता-पिता के पैर छुए जाते हैं फिर पहले दायाँ पैर बाहर निकालकर सफल यात्रा और सफल मनोकामना की मन ही मन ईश्वर के समक्ष इच्छा व्यक्त की जाती है।

*किसी से मिलते वक्त : कुछ लोग राम-राम, गुड मार्नींग, जय श्रीकृष्ण, जय गुरु, हरि ओम, साई राम या अन्य तरह से अभीवादन करते हैं। लेकिन संस्कृत शब्द नमस्कार को मिलते वक्त किया जाता है और नमस्ते को जाते वक्त।

फिर भी कुछ लोग इसका उल्टा भी करते हैं। विद्वानों का मानना हैं ‍कि नमस्कार सूर्य उदय के पश्चात्य और नमस्ते सुर्यास्त के पश्चात किया जाता है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिंदुओं ने अभिवादन के अपने-अपने तरीके इजाद कर लिए हैं जो की गलत है।

हिंदू धर्म : दैनिक कार्यों के नियम- भोजन-पानी के हिन्दू नियम


पशु, पक्षी, पितर, दानव और देवताओं की जीवन चर्या के नियम होते हैं, लेकिन मानव अनियमित जीवन शैली के चलते धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से अलग हो चला है। रोग और शोक की गिरफ्त में आकर समय पूर्व ही वह दुनिया को अलविदा कह जाता है। नियम विरुद्ध जीवन जीने वाला व्यक्ति ही दुनिया को खराब करने का जिम्मेदार है। शास्त्र कहते हैं कि 'नियम ही धर्म है।'

सनातन धर्म ने हर एक हरकत को नियम में बाँधा है और हर एक नियम को धर्म में। यह नियम ऐसे हैं जिससे आप किसी भी प्रकार का बंधन महसूस नहीं करेंगे, बल्कि यह नियम आपको सफल और ‍निरोगी ही बनाएँगे। नियम से जीना ही धर्म है।

भोजन के नियम :
भोजन की थाली को पाट पर रखकर भोजन किसी कुश के आसन पर सुखासन में (आल्की-पाल्की मारकर) बैठकर ही करना चाहिए। भोजन करते वक्त मौन रहने से लाभ मिलता है। भोजन भोजनकक्ष में ही करना चाहिए। भोजन करते वक्त मुख दक्षिण दिशा में नहीं होना चाहिए। जल का ग्लास हमेशा दाईं ओर रखना चाहिए। भोजन अँगूठे सहित चारो अँगुलियों के मेल से करना चाहिए। परिवार के सभी सदस्यों को साथ मिल-बैठकर ही भोजन करना चाहिए। भोजन का समय निर्धारित होना चाहिए।

शास्त्र कहते हैं कि योगी एक बार और भोगी दो बार भोजन ग्रहण करता है। रात्रि का भोजन निषेध माना गया है। भोजन करते वक्त थाली में से तीन ग्रास (कोल) निकाल कर अलग रखें जाते हैं तथा अँजुली में जल भरकर भोजन की थाली के आसपास दाएँ से बाएँ गोल घुमाकर अँगुली से जल को छोड़ दिया जाता है।

अँगुली से छोड़ा गया जल देवताओं के लिए और अँगूठे से छोड़ा गया जल पितरों के लिए होता है। यहाँ सिर्फ देवताओं के लिए जल छोड़ा जाता है। यह तीन कोल ब्रह्मा, विष्णु और महेष के लिए या मन कथन अनुसार गाय, कव्वा और कुत्ते के लिए भी रखा जा सकता है।

भोजन के तीन प्रकार :
जैसा खाओगे अन्न वैसा बनेगा मन। भोजन शुद्ध और सात्विक होना चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि सात्विक भोजन से व्यक्ति का मन सकारात्मक सोच वाला व मस्तिष्क शांतिमय बनता है। इससे शरीर स्वस्थ रहकर निरोगी बनता है। राजसिक भोजन से उत्तेजना का संचार होता है, जिसके कारण व्यक्ति में क्रोध तथा चंचलता बनी रहती है। तामसिक भोजन द्वारा आलस्य, अति नींद, उदासी, सेक्स भाव और नकारात्मक धारणाओं से व्यक्ति ग्रसित होकर चेतना को गिरा लेता है।

सात्विक भोजन से व्यक्ति चेतना के तल से उपर उठकर निर्भिक तथा होशवान बनता है और ता‍मसिक भोजन से चेतना में गिरावट आती है जिससे व्यक्ति मूढ़ बनकर भोजन तथा संभोग में ही रत रहने वाला बन जाता है। राजसिक भोजन व्यक्ति को जीवन पर्यंत तनावग्रस्त, चंचल, भयभीत और अति भावुक बनाए रखकर सांसार में उलझाए रखता है।

जल के नियम :
भोजन के पूर्व जल का सेवन करना उत्तम, मध्य में मध्यम और भोजन पश्चात करना निम्नतम माना गया है। भोजन के एक घंटा पश्चात जल सेवन किया जा सकता है। भोजन के पश्चात थाली या पत्तल में हाथ धोना भोजन का अपमान माना गया है। दो वक्त का भोजन करने वाले के लिए जरूरी है कि वह समय के पाबंद रहें। संध्या काल के अस्त के पश्चात भोजन और जल का त्याग कर दिया जाता है।

पानी छना हुआ होना चाहिए और हमेशा बैठकर ही पानी पीया जाता है। खड़े रहकर या चलते फिरते पानी पीने से ब्लॉडर और किडनी पर जोर पड़ता है। पानी ग्लास में घुंट-घुंट ही पीना चाहिए। अँजुली में भरकर पीए गए पानी में मीठास उत्पन्न हो जाती है। जहाँ पानी रखा गया है वह स्थान ईशान कोण का हो तथा साफ-सुधरा होना चाहिए। पानी की शुद्धता जरूरी है।

विशेष : भोजन खाते या पानी पीते वक्त भाव और विचार निर्मल और सकारात्मक होना चाहिए। कारण की पानी में बहुत से रोगों को समाप्त करने की क्षमता होती है और भोजन-पानी आपकी भावदशा अनुसार अपने गुण बदलते रहते हैं।

दीपावली ‍: विशेष आरंभिक पूजन विधि पूजन सामग्री का महत्व


माता लक्ष्मीजी के पूजन की सामग्री अपने सामर्थ्य के अनुसार होना चाहिए। इसमें लक्ष्मीजी को कुछ वस्तुएँ विशेष प्रिय हैं। उनका उपयोग करने से वे शीघ्र प्रसन्न होती हैं। इनका उपयोग अवश्य करना चाहिए। वस्त्र में इनका प्रिय वस्त्र लाल-गुलाबी या पीले रंग का रेशमी वस्त्र है।

माताजी को पुष्प में कमल व गुलाब प्रिय है। फल में श्रीफल, सीताफल, बेर, अनार व सिंघाड़े प्रिय हैं। सुगंध में केवड़ा, गुलाब, चंदन के इत्र का प्रयोग इनकी पूजा में अवश्य करें। अनाज में चावल तथा मिठाई में घर में बनी शुद्धता पूर्ण केसर की मिठाई या हलवा, शिरा का नैवेद्य उपयुक्त है। प्रकाश के लिए गाय का घी, मूँगफली या तिल्ली का तेल इनको शीघ्र प्रसन्न करता है। अन्य सामग्री में गन्ना, कमल गट्टा, खड़ी हल्दी, विल्वपत्र, पंचामृत, गंगाजल, ऊन का आसन, रत्न आभूषण, गाय का गोबर, सिंदूर, भोजपत्र का पूजन में उपयोग करना चाहिए।

तैयारी
चौकी पर लक्ष्मी व गणेश की मूर्तियाँ इस प्रकार रखें कि उनका मुख पूर्व या पश्चिम में रहे। लक्ष्मीजी, गणेशजी की दाहिनी ओर रहें। पूजनकर्ता मूर्तियों के सामने की तरफ बैठें। कलश को लक्ष्मीजी के पास चावलों पर रखें। नारियल को लाल वस्त्र में इस प्रकार लपेटें कि नारियल का अग्रभाग दिखाई देता रहे व इसे कलश पर रखें। यह कलश वरुण का प्रतीक है।

दो बड़े दीपक रखें। एक में घी भरें व दूसरे में तेल। एक दीपक चौकी के दाईं ओर रखें व दूसरा मूर्तियों के चरणों में। इसके अतिरिक्त एक दीपक गणेशजी के पास रखें।

मूर्तियों वाली चौकी के सामने छोटी चौकी रखकर उस पर लाल वस्त्र बिछाएँ। कलश की ओर एक मुट्ठी चावल से लाल वस्त्र पर नवग्रह की प्रतीक नौ ढेरियाँ बनाएँ। गणेशजी की ओर चावल की सोलह ढेरियाँ बनाएँ। ये सोलह मातृका की प्रतीक हैं। नवग्रह व षोडश मातृका के बीच स्वस्तिक का चिह्न बनाएँ।

इसके बीच में सुपारी रखें व चारों कोनों पर चावल की ढेरी। सबसे ऊपर बीचोंबीच ॐ लिखें। छोटी चौकी के सामने तीन थाली व जल भरकर कलश रखें। थालियों की निम्नानुसार व्यवस्था करें- 1. ग्यारह दीपक, 2. खील, बताशे, मिठाई, वस्त्र, आभूषण, चन्दन का लेप, सिन्दूर, कुंकुम, सुपारी, पान, 3. फूल, दुर्वा, चावल, लौंग, इलायची, केसर-कपूर, हल्दी-चूने का लेप, सुगंधित पदार्थ, धूप, अगरबत्ती, एक दीपक।

इन थालियों के सामने यजमान बैठे। आपके परिवार के सदस्य आपकी बाईं ओर बैठें। कोई आगंतुक हो तो वह आपके या आपके परिवार के सदस्यों के पीछे बैठे।

चौकी
(1) लक्ष्मी, (2) गणेश, (3-4) मिट्टी के दो बड़े दीपक, (5) कलश, जिस पर नारियल रखें, वरुण (6) नवग्रह, (7) षोडशमातृकाएँ, (8) कोई प्रतीक, (9) बहीखाता, (10) कलम और दवात, (11) नकदी की संदूकची, (12) थालियाँ, 1, 2, 3, (13) जल का पात्र, (14) यजमान, (15) पुजारी, (16) परिवार के सदस्य, (17) आगंतुक।

पूजा की संक्षिप्त विधि
सबसे पहले पवित्रीकरण करें।

आप हाथ में पूजा के जलपात्र से थोड़ा सा जल ले लें और अब उसे मूर्तियों के ऊपर छिड़कें। साथ में मंत्र पढ़ें। इस मंत्र और पानी को छिड़ककर आप अपने आपको पूजा की सामग्री को और अपने आसन को भी पवित्र कर लें।

ॐ पवित्रः अपवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपिवा।
यः स्मरेत्‌ पुण्डरीकाक्षं स वाह्यभ्यन्तर शुचिः॥
पृथ्विति मंत्रस्य मेरुपृष्ठः ग षिः सुतलं छन्दः
कूर्मोदेवता आसने विनियोगः॥

अब पृथ्वी पर जिस जगह आपने आसन बिछाया है, उस जगह को पवित्र कर लें और माँ पृथ्वी को प्रणाम करके मंत्र बोलें-

ॐ पृथ्वी त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम्‌॥
पृथिव्यै नमः आधारशक्तये नमः

अब आचमन करें
पुष्प, चम्मच या अंजुलि से एक बूँद पानी अपने मुँह में छोड़िए और बोलिए-
ॐ केशवाय नमः
और फिर एक बूँद पानी अपने मुँह में छोड़िए और बोलिए-
ॐ नारायणाय नमः
फिर एक तीसरी बूँद पानी की मुँह में छोड़िए और बोलिए-
ॐ वासुदेवाय नमः

फिर ॐ हृषिकेशाय नमः कहते हुए हाथों को खोलें और अंगूठे के मूल से होंठों को पोंछकर हाथों को धो लें। पुनः तिलक लगाने के बाद प्राणायाम व अंग न्यास आदि करें। आचमन करने से विद्या तत्व, आत्म तत्व और बुद्धि तत्व का शोधन हो जाता है तथा तिलक व अंग न्यास से मनुष्य पूजा के लिए पवित्र हो जाता है।


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आचमन आदि के बाद आँखें बंद करके मन को स्थिर कीजिए और तीन बार गहरी साँस लीजिए। यानी प्राणायाम कीजिए क्योंकि भगवान के साकार रूप का ध्यान करने के लिए यह आवश्यक है फिर पूजा के प्रारंभ में स्वस्तिवाचन किया जाता है। उसके लिए हाथ में पुष्प, अक्षत और थोड़ा जल लेकर स्वतिनः इंद्र वेद मंत्रों का उच्चारण करते हुए परम पिता परमात्मा को प्रणाम किया जाता है। फिर पूजा का संकल्प किया जाता है। संकल्प हर एक पूजा में प्रधान होता है।

संकल्प - आप हाथ में अक्षत लें, पुष्प और जल ले लीजिए। कुछ द्रव्य भी ले लीजिए। द्रव्य का अर्थ है कुछ धन। ये सब हाथ में लेकर संकल्प मंत्र को बोलते हुए संकल्प कीजिए कि मैं अमुक व्यक्ति अमुक स्थान व समय पर अमुक देवी-देवता की पूजा करने जा रहा हूँ जिससे मुझे शास्त्रोक्त फल प्राप्त हों। सबसे पहले गणेशजी व गौरी का पूजन कीजिए। उसके बाद वरुण पूजा यानी कलश पूजन करनी चाहिए।

हाथ में थोड़ा सा जल ले लीजिए और आह्वान व पूजन मंत्र बोलिए और पूजा सामग्री चढ़ाइए। फिर नवग्रहों का पूजन कीजिए। हाथ में अक्षत और पुष्प ले लीजिए और नवग्रह स्तोत्र बोलिए। इसके बाद भगवती षोडश मातृकाओं का पूजन किया जाता है। हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प ले लीजिए। सोलह माताओं को नमस्कार कर लीजिए और पूजा सामग्री चढ़ा दीजिए।

सोलह माताओं की पूजा के बाद रक्षाबंधन होता है। रक्षाबंधन विधि में मौली लेकर भगवान गणपति पर चढ़ाइए और फिर अपने हाथ में बँधवा लीजिए और तिलक लगा लीजिए। अब आनंदचित्त से निर्भय होकर महालक्ष्मी की पूजा प्रारंभ कीजिए।

आइए, खुद का ट्रीटमेंट करें आत्मसम्मोहन चिकित्सा से स्वयं का इलाज


खुद का ट्रीटमेंट यानी हम खुद जानें कि हमारी समस्या क्या है? इसे हम आत्मसम्मोहन व आत्मचिंतन भी कह सकते हैं। इसकी मदद से आपके शरीर तथा दिमाग दोनों सही परिणाम देने लगेंगे। हालांकि निगेटिव विचार तनावपूर्ण परिस्थितियों की देन होते हैं, लेकिन आप अपने अंदर संतुलन पैदा कर आत्म सुझावों द्वारा उनका सामना कर सकते हैं।

इसके लिए कुछ लोग मंत्रों को मन ही मन पढ़ते या फिर बोलकर उच्चारण भी करते हैं, ताकि मन को शांति एवं नई दिशा व सजगता मिल सके। मंत्रों के शब्द मन के अंदर एक जबर्दस्त पवित्र छाप छोड़ते हैं। ये शब्द दिलो-दिमाग पर गूंजते हैं, जिससे पूरा शरीर प्रभावित होता है।

अब जब संतुलन ही अहम चीज है, तो यहां हम कुछ ऐसी बातों का जिक्र करने जा रहे हैं, जिन पर अमल कर शुरू से ही आप अपने शरीर को संतुलित और स्वस्थ बना सकते हैं। आयुर्वेद ने इस संबंध में एक प्रणाली का उल्लेख किया हुआ है, जिसे हम सेल्फ रेफरल कहते हैं। सेल्फ-रेफरल का मतलब है- अपने अंदर झांकना या आत्मनिरीक्षण करना और फिर आत्मचिंतन करना।


जब आपको सुख का अनुभव हो, तो समझिए कि आप आत्मचिंतन कर रहे हैं और जब डर, चिंता, नाराजगी- जैसे भाव आने लगें, तो समझिए कि आप आत्मचिंतन से बाहर आ गए हैं और आप वस्तु चिंतन कर रहे हैं, क्योंकि इन भावनाओं की उत्पत्ति का कारण ही वस्तु-चिंतन है। और वस्तु चिंतन कुंठा एवं मानसिक स्थिति ठीक न होने के कारण होता है। इससे न सिर्फ सफलता की राह में रुकावट आती है, बल्कि आपके शरीर को कहीं न कहीं नुकसान भी पहुंचता है।

मनुष्य लगभग 10 हजार तरह की गंधों को पहचान सकता है और गंध संबंधी कोशिकाएं नाक के अंदर मौजूद झिल्ली पर होती हैं। यही कोशिकाएं गंध संबंधी खबर सीधे मस्तिष्क के अंदर स्थित हाइपोथैलमस के पास भेजती है। हाइपोथैलमस मस्तिष्क का एक बहुत छोटा-सा भाग है, मगर वह शरीर की दर्जनों प्रक्रियाओं के लिए जिम्मेदार होता है।

जैसे- शरीर का तापमान, प्यास, खून में शर्करा का स्तर, विकास, नींद, जागना, भावनाएँ और पाचन। इस तरह गंध की कोई खबर सबसे पहले हाइपोथैलमस को प्रभावित कर, उसकी कार्य विधियों को सही रखती है।


ऐसे में खास-खास किस्म की गंधों के जरिए तीनों दोषों (वात, कफ, पित्त) को भी संतुलित किया जा सकता है। जैसी तुलसी, संतरा-मौसंबी और लौंग की गंध वात को प्रभावित करती है, वैसे ही चंदन, गुलाब, पुदीना और दालचीनी की मीठी-ठंडी खुशबू से पित्त संतुलित रहता है। और लौंग, काली मिर्च, मिंट आदि की गंध कफ को संतुलित करती है। अन्य जरूरतों के लिए भी कई गंधों के मिश्रण तैयार किए जा सकते हैं।

एक तरह से देखा जाए, तो आपका शरीर हमेशा उस वातावरण को ग्रहण करता रहता है, जिसमें आप रहते हैं और यह कार्य आपकी इंद्रियां करती हैं। लिहाजा, शारीरिक संतुलन के लिए शरीर का मन से संतुलन बनाए रखना भी जरूरी होता है। इसके लिए आत्म-सम्मोहन विधि सबसे ज्यादा उपयोगी साबित होती है।


इसके अनुसार आत्म-सम्मोहन के दौरान ओंकार संगीतमय ध्वनि से आपके शरीर और दिमाग का संतुलन तो ठीक होता ही है, इर्द-गिर्द का वातावरण भी संतुलित होता है। इसमें कोई शक नहीं कि ध्वनि का मन और शरीर पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

बिस्तर पर जाने से पहले या फिर तनाव की स्थिति में संगीत सुनने से मन आत्मचिंतन की प्रेरणा पाता है और प्रतिदिन आत्म-सम्मोहन के सफल अभ्यास से नकारात्मक भावनाएं दूर होती हैं और शरीर व मन स्वस्थ हो जाता है।

इसके लिए आवश्यक है कि अनुभवी व जानकार सम्मोहन चिकित्सक से 7 से 10 दिन तक लगातार सम्मोहन की विधि सीखी जाए। जो लोग एक या दो दिन में सिखाने का दावा करते हैं वे केवल इस विधि का आपको प्रारंभिक ज्ञान दे सकते हैं, इसके वास्तविक लाभ का अनुभव नहीं करा सकते।

सौंधी मिट्टी में छुपे हैं सौंधे गुण


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फ्रांस और अमेरिका में मिट्टी-स्नान बहुत पहले से ही प्रचलन में है। वहां कम से कम महीने में एक बार स्वस्थ व्यक्ति मिट्टी-स्नान आज भी लेता है। भारत में यह प्रयोग अति प्राचीनकाल से होता चला आ रहा है। पृथ्वी पंच तत्वों में पांचवां और अंतिम तत्व है। यह अन्य चार तत्वों- आकाश, वायु, अग्नि तथा जल का रस है।

'एषां भूतानां पृथ्वी रस'

उपनिषद : श्रुति में पृथ्वी को अन्न भी कहा गया है। उपनिषद में वर्णन मिलता है कि आत्मा से आकाश की उत्पति हुई, आकाश से वायु की, वायु से अग्नि की, अग्नि से जल की, जल से पृथ्वी की, पृथ्वी से औषधि-वनस्पतियों की, औषधि से अन्न की और अन्न से मनुष्य की उत्पत्ति हुई है।

मिट्टी के गुण
मिट्टी जितनी सर्वसुलभ एवं नगण्य समझी जाती है, उसके गुण-गरिमा उतनी ही महान है। इसके प्रमुख गुण निम्नानुसार हैं

सब प्रकार के दुर्गंध को मिटाने में सक्षम।

सर्दी व गर्मी रोकने की शक्ति।

जल को निर्मल करने की अद्भुत शक्ति।


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बड़े से बड़े घाव (फोड़े) को पकाने व भरने की शक्ति।

सांप, बिच्छू आदि के काटने पर विषादि को शोषण करने की शक्ति।

खाद्य पदार्थों को उनमें भिन्न-भिन्न रसों की प्रधानता के साथ उत्पन्न करने की शक्ति।

अग्नि की उष्णता को शांत करने की शक्ति।

रोगों को दूर करने की अपूर्व शक्ति।

विलक्षण विद्युत शक्ति होने से जीवन-शक्ति का संचार।

मिट्टी के बर्तनों में रखा भोजन अधिक समय तक खराब नहीं होता।

नेत्र ज्योति बढ़ाने की अद्भुत शक्ति (नंगे पांव चलने से)।

कैसी हो लाइफ स्टाइल छात्रों की विद्यार्थियों के लिए दिनचर्या


* प्रातः काल सूर्योदय से एक घंटा पहले उठकर नित्य कर्मों से निवृत्त होकर 15-20 मिनट व्यायाम या योगासनों का अभ्यास करने से सुस्ती व शिथिलता मिट जाती है और शरीर में चुस्ती-फुर्ती तथा तबीयत में ताजगी आ जाती है, जिससे पढ़ाई में मन लगता है और पाठ अच्छी तरह याद होता है।

* सूर्योदय से पहले नित्यकर्मों से निवृत्त होने का उद्देश्य यह है कि वातावरण में सूर्य की गरमी फैले इससे पहले ही शौच क्रिया द्वारा मल शरीर से बाहर हो जाए और शीतल जल से स्नान करने से रात को सोने के कारण शरीर में बढ़ी गरमी दूर हो जाए, ताकि मलाशय, अमाशय, पाकाशय, मूत्राशय, शुक्राशय आदि पर व्याप्त हो जाने वाली अतिरिक्त उष्णता कम हो जाए।

* शरीर में अतिरिक्त उष्णता का होना या बढ़ना शरीर और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। सूर्योदय के बाद तक भी जो सोए रहते हैं, उनके शरीर के सभी अंग-प्रत्यंग बढ़ी हुई गरमी से ग्रस्त तो होते ही हैं, ऊपर से वातावरण में व्याप्त सूर्य की गरमी उसमें और वृद्धि कर देती है, इससे कई व्याधियां उत्पन्न होती हैं।

* नित्यकर्म (मुख धोना (दन्त-मंजन करना), शौच जाना और स्नान करना) तथा व्यायाम से निवृत्त होकर पानी में भिगोए हुए चनों को खूब चबा-चबाकर खाना चाहिए। यह अत्यन्त पौष्टिक और बलवर्द्धक नाश्ता है।

* अपनी पढ़ाई करके स्कूल या कॉलेज का जो भी समय हो, उसके अनुसार सुबह-शाम के भोजन का समय निश्चित कर लें और निश्चित समय पर ही भोजन किया करें। भोजन करते समय मन को भोजन पर ही एकाग्र रखें, ताकि प्रत्येक कौर खूब अच्छी तरह से चबा-चबाकर निगल सकें।

* भोजन करते समय बातचीत करना इसीलिए वर्जित किया गया है, ताकि ध्यान भोजन पर और खाई जा रही तथा चबाई जा रही वस्तु पर ही केन्द्रित रहे। इस विधि से भोजन करने से पाचन ठीक होता है, अपच और कब्ज नहीं होती और गैसेज की शिकायत भी उत्पन्न नहीं होती। खाय-पिया अंग लगता है, जिससे शरीर पुष्ट, सुडौल और बलवान होता है।

* शाम को थोड़ा समय खेलकूद और मनोरंजन के लिए निश्चित रखें। टी.वी. ज्यादा न देखें, सिर्फ ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रम ही देखें, ताकि नेत्र ज्योति खराब न हो और व्यर्थ समय नष्ट न हो। शाम का भोजन सोने से तीन घंटे पहले कर लिया करें, ताकि ठीक से हजम हो सके। सोते समय एक गिलास ठंडा किया हुआ दूध पी सकें तो अवश्य पिया करें। यदि आपका शरीर दुबला हो तो इसमें 1-2 चम्मच शहद घोलकर पिया करें। सोने से पहले कुल्ले (दन्त मंजन) करके मुंह साफ करना जरूरी है।

* शाम को 2-3 घंटे पढ़ाई करके 10 से 11 बजे के बीच सो जाया करें। सोते समय दिमाग से सोच-विचार हटाने के लिए अपनी सांस आने-जाने पर ध्यान लगाया करें। इससे नींद जल्दी और गहरी आती है। सोने से पहले हाथ, पैर, मुंह धो लिया करें। सोते समय यह संकल्प करें कि सुबह इतने बजे उठना है। इससे बिना अलार्म के भी ठीक उसी वक्त आपकी नींद खुल जाया करेगी, जितने बजे उठने का संकल्प करेंगे।

* यह कार्यक्रम मोटे तौर पर छात्र-छात्राओं के लिए विद्यार्थी के रूप में तो उपयोगी है ही, जो छात्र-छात्रा नहीं हैं, ऐसे युवक-युवती भी अपने-अपने दैनिक कार्य करते हुए इस कार्यक्रम पर अमल कर सकते हैं, क्योंकि इतना अमल करना सभी के लिए सांझे रूप से उपयोगी एवं स्वास्थ्यरक्षक सिद्ध होगा।

द्वंद्ध से मुक्ति का उपाय


द्वंद्व का सामान्य अर्थ होता है दिमाग में दो तरह के विचार के बीच निर्णय नहीं ले पाना। जैसे उदाहरण के तौर पर कभी ईश्वर के अस्तित्व को मानना और कभी नहीं। कभी किसी को या खुद को गलत समझना और कभी नहीं। अनिर्णय की स्थिति में चले जाना या सही व गलत को समझ नहीं पाना। यदि इस तरह की स्थिति लंबे समय तक बनी रहती है तो यह मस्तिष्क विकार का कारण बन जाती है। द्वंद्व का जितना असर मस्तिष्क पर पड़ता है उससे कहीं ज्यादा असर शरीर पर पड़ता है। द्वंद्व हमारी सेहत के लिए खतरनाक है।

जिनके दिमाग में द्वंद्व है, वह हमेशा चिंता, भय और संशय में ही ‍जीते रहते हैं। प्यार में भय, परीक्षा का भय, नौकरी का भय, दुनिया का भय और खुद से भी भयभीत रहने की आदत से जीवन एक संघर्ष ही नजर आता है, आनंद नहीं। इनसे दिमाग में द्वंद्व का विकास होता है जो निर्णय लेने की क्षमता को खतम कर देता है। इस द्वंद्व की स्थिति से निजात पाई जा सकती है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए द्वंद्व से मुक्त होना आवश्यक है।

*कैसे जन्मता है द्वंद्व : बचपन में आपके ऊपर प्रत्येक तरह के संस्कार लादे गए हैं, आप खुद भी लाद लेते हैं। फिर थोड़े बढ़े हुए तो सोचने लगे, तब संस्कारों के खिलाफ भी सोचने लगे, क्योंकि आधुनिक युग कुछ और ही शिक्षा देता है, लेकिन फिर डर के मारे संस्कारों के पक्ष में तर्क जुटाने लगे। इससे आप तर्कबाज हो गए। अब दिमाग में दो चीज हो गई- संस्कार और विचार।

फिर थोड़े और बढ़े हुए तो कुछ खट्टे-मिठे अनुभव भी हुए। आपने सोचा की अनुभव कुछ और, बचपन में सिखाई गई बातें कुछ और है। अब दिमाग में तीन चीज हो गई- संस्कार, विचार और अनुभव। संस्कार कुछ और कहता है, विचार कुछ और और अनुभव कुछ और। इन तीनों के झगड़ने में ज्ञान तो उपज ही नहीं पाता और द्वंद्व बना रहता है।

*द्वंद्ध से मुक्त का उपाय :

योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:।- योगसूत्र

चित्तवृत्तियों का निरोध करना ही योग है। चित्त अर्थात बुद्धि, अहंकार और मन नामक वृत्ति के क्रियाकलापों से बनने वाला अंत:करण। चाहें तो इसे अचेतन मन कह सकते हैं, लेकिन यह अंत:करण इससे भी सूक्ष्म माना गया है। इस पर बहुत सारी बातें चिपक जाती है।

दुनिया के सारे धर्म इस चित्त पर ही कब्जा करना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने तरह-तरह के नियम, क्रियाकांड, ग्रह-नक्षत्र, लालच और ईश्वर के प्रति भय को उत्पन्न कर लोगों को अपने-अपने धर्म से जकड़े रखा है। उन्होंने अलग-अलग धार्मिक स्कूल खोल रखें हैं। पातंजल‍ि कहते हैं कि इस चित्त को ही खत्म करो। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।

चित्त को राह पर लाने के लिए प्रतिदिन 10 मिनट का प्राणायाम और ध्यान करें। तीन माह तक लगातार ऐसा करते रहने से दिमाग शांत और द्वंद्व रहित होने लगेगा। जब भी कोई विचार आते हैं अच्छे या बुरे दोनों की ही उपेक्षा करना सिखें और व्यावहारिक दृष्टिकोण को अपनाएं अर्थात सत्य समझ और बोध में है विचार में नहीं।

*योगा पैकेज : आहार का शरीर से ज्यादा मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है, तो आप क्या खाते हैं इस पर गौर करें। अच्छा खाएँ और शरीर की इच्छा से खाएँ, मन की इच्छा से नहीं। यौगिक आहार को जानना चाहें तो अवश्य जानें। आहार के बाद आसन के महत्व को समझें और तीसरा प्राणायाम व ध्यान नियमित करें। आसन से शरीर, प्राणायाम-ध्यान से मन-मस्तिष्क और आहार से दोनों का संतुलन बरकरार रहेगा।

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